झुंझुनूलेखशिक्षा

कोरोना काल में शिक्षा और चिंता के दायरे

लेखक – दीपक कुमार मूंड, उपनिदेशक (आईसीटी) राजस्थान स्कूल शिक्षा परिषद, जयपुर

झुंझुनू, एक सूक्ष्म वायरस ने इन दिनों में सजीवों की दिनचर्या और आचार विचार की संहिता को ही नही बदला बल्कि निर्जीव दुनिया के स्थापित कुछ साधन और माध्यमों को जीवन के परिदृश्य से बाहर कर दिया तो कुछ को जीने का नया आधार बना दिया है I ऐसे अकल्पनीय और असमंजस भरे समय में जब एक दुसरे के सम्पर्क से बचना ही बुद्धिमता है और सामाजिक दूरियां ही जागरूक नागरिक की पहचान है तो शिक्षण-अधिगम की निरंतरता को बनाए रखने के लिए शिक्षक-शिष्य सम्बन्धों का नई कसौटी और चिंताओं से गुजरना लाजमी है I
शिक्षक – शिष्य सम्बन्धों कि धूरी है सम्पर्क, समर्पण और ग्राह्यता I इसी संकल्पना के निहित होकर नीति निर्धारक, प्रशासक और शिक्षक स्वयं आज इस मंथन में लगे हैं कि कैसे और किस माध्यम से भौतिक दूरियों को सीखने की निरंतरता में बाधक न बनने दिया जाये I कुछ ऐसी ही वैचारिक मंत्रणाओं के साथ एक अन्तराष्ट्रीय वेबीनार में सहभागिता का मौक़ा मिला जहां व्यापक चर्चा की जा रही थी की पश्च कोरोना काल में स्कूल शिक्षा का परिदृश्य कैसा हो I शिक्षा क्षेत्र के विद्वान् अपने अपने तर्क दे रहे थे और नई सम्भावनाओं को खोज भी रहे थे I बुद्धिजीवी जब विस्तार देने लगता है अपने दृष्टिकोण को तो हर उस पहलू को भी समाहित कर लेता है जो उसकी समझ और परिस्थिति के दायरे के बाहर कहीं भी दिखाई दे जाए I कोरोना के प्रभाव ने तो हर तन्त्र को इतना उथल पुथल किया है और चिंताओं के इतने अधिक कारण और स्तम्भ खड़े किये है कि सामान्य समझ का व्यक्ति भरपूर संशय में है I ऐसे समय में जब वेबीनार में सभी शिक्षाविद जुड़े तो पश्च कोरोना काल में शिक्षा के साधन और आयाम के चिंतन से आगे निकलकर देश दुनिया की बदहाली पर बातें चल निकली I सभी लगभग सहमत दिखे कि जब स्कूल खुलने के आसार नहीं है, हर बच्चा अपने घर में ही है तो सोशल डिसटेंसिंग को बनाए रखते हुए डिजिटल ऑनलाइन माध्यम से पढाई करवाना या रेडियो टेलीविजन को शिक्षा सम्प्रेष्ण का माध्यम बनाना ही समय की मांग है I इसी सहमति के साथ शुरू हुई नई चिंताएं ; क्या इन डिजिटल माध्यमों को अपनाने से बच्चो के बीच डिजिटल डिवाइड नहीं बढेगा ? क्या ये ऑनलाइन माध्यम बाल मनोविज्ञान के अनुकूल हैं ? क्या केवल उपकरणों पर आधारित सम्प्रेष्ण शिक्षक का स्थान नही हथिया लेगा ? क्या शिक्षक कि आवश्यकता घट नहीं जायेगी ? क्या बेरोजगारी बढ़ नहीं जायेगी ? क्या इन दिनों के आर्थिक विषमता के हालात परिवारों को रोटी और ऑनलाइन शिक्षा में से एक को चुनने के दोराहे पर नही ले आयेंगे ?
इस वेबीनर कि तरह ही ऐसे अनेकों अनेक सवाल हर शिक्षाविद के जहन में भी उठ रहे होंगे कि किस किस समस्या का समाधान करें ताकि परिशुद्ध परिस्थति को पनपा सकें I सवाल यह है कि एक शिक्षक को क्या इन सब चिंताओं में रहना चाहिए ? ऐसे सवालों के ज़वाब ढूंढने में श्रम लगाना चाहिए ? मेरा मानना है कि आप एक शिक्षक हैं , शिष्य की पढाई की निरतरता के लिए चिंतित है तो अपने लक्ष्य को साधते वक्त आपको कदापि इतने विषम व विस्तृत चिंतन में प्रथमतया नहीं रहना चाहिए I
हमारे विचारों के दो दायरे है ; एक चिंता का दायरा और एक प्रभाव का दायरा I चिंता का दायरा हमारे लक्ष्य तक जाने वाली सीढियों कि संख्या और रास्ते कि चुनौतियां कि संख्या को बढाता है जबकि प्रभाव का दायरा निश्चित सीढियों और चुनौतियों से पार पाने की शुरुआत करता है I जब हम देश व्यापी विषम परिस्थितियों , सम्भावित बेरोजगारी , आर्थिक विषम हालात , सम्भावित डिजिटल विभेद जैसी अनेकों अनेक चिंताओं को अपना लेगे तो हमारी चिंताओं का दायरा बढेगा और मूल लक्ष्य साधने की हमारी क्षमता बढती सीढियों और चुनौतियों को पाटने में ही खर्च हो जायेगी और मूल लक्ष्य अधिगम की निरन्तरता बनाए रखने के लिए ऊर्जा व समय बचेगा ही नहीं I ऐसा नहीं कि देशव्यापी सामाजिक पहलुओं को छूने वाली समस्याएं हमारे चिंतन के भाग न हों परन्तु उनका तात्कालिक स्पष्ट समाधान यदि हमारे नियत्रण में नहीं है तो ये समस्याएं हमारे चिंता के दायरे को ही बढायेगी और मूल लक्ष्य को प्राप्त करने के रास्ते से भटकायेंगी ही I हर वो चिंतन जो केवल चिंतन मात्र के लिए होता है और जिसका समाधान चिंतनकर्ता के वश में नही होता वह चिंता का दायरा बढाता है और प्रभाव का दायरा घटाता है I एक शिक्षक के नियत्रण यह नहीं कि वह तत्काल बेरोजगारी , आर्थिक विषमता , भुखमरी , डिजिटल विभेद को समाप्त कर दे परन्तु उसके नियत्रण में यह जरुर है कि वह अपने शिष्य को अधिगम कि निरन्तरता दे सके और इन चुनौतियों का सामना करने हेतु सक्षम बना सके I इस प्रकार आज उसके प्रभाव का दायरा होना चाहिए ‘शिष्य कि पढाई को जारी रखने के समाधान’ I सही मायने में शिक्षक या शिक्षा प्रशासक को अपने प्रभाव का दायरा बढ़ाना चाहिए अर्थात बच्चो की पढाई कैसे सुचारू रहे इसी बात के चिंतन में अधिक समय गुजारना चाहिए क्यों कि यही एक ऐसी चिंता है जिसके समाधान पर उसका प्रत्यक्ष नियन्त्रण है I स्वाभाविक बात है कि विद्यार्थी को पढाने और उसे विषयवस्तु याद करवा कर सफल बनाने के कार्य पर शिक्षक का पूर्ण नियन्त्रण है अर्थात यह शिक्षक के प्रभाव का दायरा है I शिक्षक अपने प्रभाव के दायरे को बढाता जाएगा तो वह अधिक गहराई तक विश्लेष्ण करेगा कि किस विधा से , किस सीमा तक वह बालक को पारंगत करे कि वह निश्चित ही सफल हो I साथ ही साथ वह स्वयं को शिष्य हित में लीन करता जाएगा, उसका चिंतन व ऊर्जा उसी ओर लक्षित हो जायेगी और उसकी चिंता का दायरा सिकुड़ता जाएगा I अंततः प्रभाव के दायरे का फैलाव और चिंता के दायरे की सिकुडन एक सीमा पर मिलकर शिक्षक के चिंतन को केवल उसके मूल कर्तव्य तक सीमित कर देगी और इस स्थिति में लक्ष्य और प्रयास के बीच केवल ‘पक्षी कि आँख’ का प्रसंग भर बचेगा I इस तर्क का मन्तव्य यह नहीं की शिक्षक का चिंतन बच्चो कि सुचारू पढाई के लक्ष्य से आगे बढ़े ही नहीं ; शिक्षक को विस्तृत समस्याओं और सामाजिक विषमताओं के प्रति भी विचारशील होना चाहिए I चहुँओर कि विषम परिस्थितियों से चिंतित होते हुए भी शिक्षक को प्रयास करना होगा कि यह सब उसकी चिंता के दायरे को न बढा पायें बल्कि उसके प्रभाव के दायरे में समाहित हों I यक्ष प्रश्न अब यह आता है कि ऐसा कैसे होगा ? यह इतना भी कठिन नहीं है क्यों कि किसी भी समस्या के समाधान को अपने नियत्रण में लाते ही वह समस्या प्रभाव के दायरे में आ जाती है I उदाहरण के तौर पर यदि किसी शिष्य के परिवार में आर्थिक हालात बड़े विषम हैं तो शिक्षक के लिए वह चिंता का दायरा है क्यों कि उनकी वित्तीय स्थिति में बदलाव लाना शिक्षक के नियन्त्रण में नहीं है ; परन्तु शिष्य को पढाई या अधिगम के ऐसे साधन या सबक दे सकता है जो उस परिवार पर बिना कोई आर्थिक भार डाले सफलता ला सकते हों तो यह समस्या शिक्षक के प्रभाव के दायरे में आ जायेगी क्यों अप्रत्यक्ष रूप से उस परिवार को बिना आर्थिक भार संबलन मिला , बच्चे को शिक्षा मिली I शिक्षक यदि विद्यार्थी के परिवार के सदस्यों को प्रेरित कर उन्हें डिजिटल डिवाइस उपयोग की बाध्यता या अन्य माध्यम से बच्चो के पास कुछ समय बैठने के लिए तैयार कर लेते है तो परिवार के सदस्यों के साथ बैठने से परिवार का हपिनेस इंडेक्स बढ़ेगा और स्वत् ही सामाजिक दुराव , युवाओं का भटकना जैसी बड़ी चिंताओं के समाधान को अपने नियन्त्रण में लाकर अपने प्रभाव के दायरे को बढा सकते है I यह सब तभी सम्भव है जब हम मूल लक्ष्य पर ही केन्द्रित हों और शिक्षण अधिगम कि निरन्तरता को बनाए रखने के लिए हमे वह साधन भी अपनाने में हिचकना नहीं चाहिए, चाहे वो केवल एक ही बच्चे को लाभ दे पा रहा हो I जब शिक्षक व्यर्थ चिंता के दायरे से बाहर आकर ऐसा करना शुरू करेगा तो हर कदम नये समाधान को प्रेरित होगा और शेष विद्यार्थियों तक पहुंचने हेतु अपने प्रभाव के दायरे को बढाने के प्रयास करेगा I आओ हम सब चिंताओं के दायरे से बाहर निकलें और गिलास को बूँद-बूँद कर भरना शुरू करें , बिना यह सोचे कि बूँद भर से प्यास कैसे बुझेगी I

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