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लम्पी स्कीन डिजीज की रोकथाम के लिए जिले में नियंत्रण कक्ष स्थापित

लम्पी के लक्षण दिखने पर इन नंबर पर करें कॉल- 01572-270739

सीकर, प्रदेश में वर्तमान में फैल रही लम्पी स्कीन डिजीज की रोकथाम के लिए जिले में नियंत्रण कक्ष की स्थापना की गई है। जिला स्तरीय नियंत्रण कक्ष संयुक्त निदेशक कार्यालय बहुउद्देशीय पशु चिकित्सालय सीकर में स्थापित किया गया हैं, इसके दूरभाष नम्बर 01572-256723 है। पशुपालन विभाग की संयुक्त निदेशक सुमित्रा खीचड़ ने बताया कि नियंत्रण कक्ष के प्रभारी जिला रोग निदान इकाई डॉ.वीरेन्द्र शर्मा जिनके मोबाईल नम्बर 9413950015 हैं तथा डॉ. रशीद अहमद चौहान जिनके मोबाईल नम्बर 9414039443 पर संपर्क किया जा सकता है। नियंत्रण अधिकारी लम्पी स्कीन डिजीज से संबंधित सूचना नियंत्रण कक्ष पंजिका में इन्द्राज करेंगें ।

गोपालकों व गौशालाओं द्वारा संधारित गौवंश में लम्पी स्कीन डिजीज की रोकथाम एवं बचाव के लिए एडवाजरी –

गौरतलब है कि वर्तमान में मवेशियों एवं अन्य पशुओं में लम्पी स्कीन रोग के प्रकरण सामने आये है। चूंकि यह एक विषाणु जनित रोग है। अतः इस रोग के ईलाज के लिए कोई दवा सुनिश्चित नहीं है। अतः रोकथाम एवं बचाव ही एक मात्र उपाय है जिससे कि इस रोग से होने वाली क्षति को न्यूनतम किया जा सके। गोपालकों व गौशालाओं में संधारित गौवंश मे इस रोग के रोकथाम एवं बचाव के लिए निदेशालय गोपालन द्वारा निम्न सुझाव प्रसारित किये जा रहे है जिससे गौवंश में होने वाले इस रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

रोग एवं लक्षणः

लम्पी स्कीन डिजीज एक विषाणु जनित, गौवंश तथा अन्य पशुओं में फैलने वाला संक्रामक रोग है। यह वेक्टर यानी मच्छरों, मक्खियों और चीचड आदि के द्वारा तथा पशुओं की लार, स्त्राव तथा संकमित जल एवं चारा के माध्यम से एक से दूसरे पशु में फैलता है। इस रोग के प्रमुख लक्षण है ः

गौवंश के त्वचा पर गोलाकार गांठदार संरचनाओं का उभरना प्रायः देखा जाता है। यह गांठे सामान्यतः 2 से 5 सेमी व्यास की होती है जोकि सिर, गर्दन एवं जननांगों के आसपास देखी जा सकती है। यह गांठे धीरे-धीरे बडी होने लगती हैं अंततः घाव में परिवर्तित हो जाती है।

तेज बुखार, आंख, नाक से लार का स्त्राव ।

कभी-कभी छाती व पेट के पास सूजन देखी जाती है।

दूध का अचानक से कम हो जाना।

रोग की रोकथाम के उपायः

गौवंश के अनावश्यक आवागमन पर पूर्णतः प्रतिबंध लगाना ।

गौशाला प्रबंधक अपने गौवंश को गौशालाओं में ही रखे, यदि रोग का प्रकोप क्षेत्र में है तो चरने के लिए गौवंश को गौशाला से बाहर न भेजे।

गौशालाओं में आने वाले नए गौवंश को पृथक बाडें में रखे, उन्हें गौशाला के अन्य स्वस्थ पशुओं के साथ कम से कम 15 दिवस तक सम्मलित नही करें।

गौशाला प्रबंधक व गोपालक गौवंश में रोग के प्रारंभिक लक्षण देखते ही तुरन्त पशु को अन्य गौवंश से अलग करे। रोगी गौवंश का समय पर पृथकीकरण करने से ही रोग के फैलाव को नियंत्रण किया जा सकता है।

रोग प्रभावित, गौवंशों के चारा-पानी एवं इनकी देखभाल करने वाले व्यक्ति को स्वस्थ गौवंश रखे जाने वाले क्षेत्र में भ्रमण की अनुमति न देवें

गौवंश की देखभाल करने वाले व्यक्ति लगातार अपने हाथ साबुन, पानी से साफ करें अथवा सेनिटाइजर का उपयोग करे।

गौशाला परिसर व गौवंश के बाड़े की प्रतिदिन समुचित साफ-सफाई रखे। गंदगी व गड्डों में पानी आदि एकत्रित न होने दे।

गौशाला परिसर में मच्छरों, मक्खियों और चीचड आदि के नियंत्रण के लिए मैलिथियोन ,साईपरमैथ्रिन, डेल्टामैथिन , सोडियम हाईपोक्लोराईट आदि का छिडकाव प्रतिदिन करें ।

स्थानीय स्तर पर गौशाला संचालक गोबर के कण्डे आदि जलाकर भी गौशाला परिसर में मच्छरों, मक्खियों को कम कर सकते है।

स्वस्थ गौवंश को संतुलित पशु आहार व हरा चारा समुचित मात्र में उपलब्ध करायें ताकि उसकी सामान्य रोग प्रतिरोधक क्षमता बनी रहे।

रोग का उपचार व टीकाकरणः

रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखते ही स्थानीय पशु चिकित्सा केन्द्र पर सूचित कर पशु चिकित्साधिकारी के निर्देशन में रोगी पशु की चिकित्सा एवं रोग के प्रबंधन की व्यवस्था सुनिश्चित करें।

यद्यपि इस रोग का वर्तमान में टीका उपलब्ध नही है फिर भी पशुपालन, मत्स्य एवं डेयरी मंत्रालय,

भारत सरकार के द्वारा अनुशंपित गॉट पॉक्स का टीका स्वस्थ गौवंश को रोग के बचाव के लिए लगवाया जा सकता है।

यदि किसी गांव में इस रोग से प्रभावित गौवंश देखे जाते है तो उस गांव के 03 से 05 किमी के क्षेत्र के अंदर संधारित समस्त मवेशियों में बाहर से अन्दर की ओर रिंग वैक्सीनेशन करवाया जाना चाहिए ।

प्रभावित गौवंश की लक्षण के अनुरूप चिकित्सा करने तथा अन्य संक्रमण के होने से बचाव किया जाना चाहिए। शरीर पर हुई गाठों की नियमित एन्टीसेप्टिक ड्रेसिंग करना आवश्यकतानुसार 5-7 दिन एन्टीबयोटिक व मल्टीविटामिन तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाने वाली औषधि दी जानी चाहिए। प्रभावित गौवंश पर मच्छरों, मक्खियों और चीथड़ आदि के नियंत्रण के लिए फ्लाई रिपलेन्ट ( विकर्षक) स्प्रे अथवा मलहम का नियमित उपयोग किया जाना चाहिए।

मृत गौवंश का निस्तारणः

गौशाला परिसर तथा क्षेत्र में रोग से प्रभावित होकर मृत गौवंश का समुचित निस्तारण किया जाना आवश्यक है ताकि रोग का फैलाव रोका जा सकें।

संक्रामक रोग से मृत गौवंश एवं इससे संबंधित वस्तुओं को गांव के बाहर एवं किसी भी जलस्त्रोत से दूर लगभग 1.5 मी. गहरे गढ्डे में चूने या नमक के साथ वैज्ञानिक विधि से दफनाया जा सकता है।

मृत गौवंश के संपर्क में रही वस्तुओं एवं स्थान को फिनाइल या लाल दवा अथवा सोडियम हाईपोक्लोराईट आदि से कीटाणु रहित करें।

रोग प्रकोप की स्थिति में स्थानीय प्रशासन एवं संबंधित विभागों का सहयोग लिया जा कर उचित प्रबंधन सुनिश्चित किया जावें।

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