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शहीद कनकलता बरुआ: 17 वर्ष की वीरांगना की शहादत

Portrait of Shaheed Kanaklata Barua, young freedom fighter of Assam

आलेख- बलिदान दिवस विशेष – 20 सितंबर – लेखक – धर्मपाल गाँधी

प्रारंभिक जीवन और संघर्ष

कनकलता बरुआ का जन्म 22 दिसम्बर 1924 को असम के बारंगबाड़ी गांव (दरंग ज़िला) में हुआ। बचपन में ही उनके पिता कृष्णकांत बरुआ और मां कनी बरुआ का निधन हो गया।
वे अनाथ हो गईं और नानी ने उनका पालन-पोषण किया। आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद उनकी शिक्षा-दीक्षा जारी रही, लेकिन पारिवारिक परिस्थितियों ने उन्हें जल्दी ही समाज और आंदोलन की ओर प्रेरित किया।

कम उम्र में ही उन्होंने गांधीजी के भारत छोड़ो आंदोलन और नेताजी सुभाषचंद्र बोस के देशभक्ति संदेश को सुना और आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़ीं।


आंदोलन से जुड़ाव और नेतृत्व

1942 में जब महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया, तब देशभर में आज़ादी की आग भड़क उठी।
असम में युवाओं और महिलाओं ने भी बड़ी संख्या में आंदोलन का नेतृत्व किया।

इसी दौरान कनकलता बरुआ ने मृत्यु वाहिनी दल (Death Squad) में शामिल होकर स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बनीं।
यह संगठन आंदोलनकारियों को संगठित करने और ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ जनसमूह को तैयार करने का कार्य करता था।

साहस और निडरता के कारण कनकलता को महिला कार्यकर्ताओं का प्रमुख बना दिया गया।


गोहपुर थाने की ओर मार्च

20 सितम्बर 1942 – यह दिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमर हो गया।
उस दिन असम के गोहपुर कस्बे में हजारों स्वतंत्रता सेनानी थाने पर तिरंगा फहराने निकले।

इस जुलूस का नेतृत्व कनकलता बरुआ ने किया।
हाथ में राष्ट्रीय ध्वज थामे वे सबसे आगे चल रही थीं।

पुलिस ने रास्ता रोका और धमकी दी कि यदि आगे बढ़े तो गोली चला दी जाएगी।
लेकिन कनकलता पीछे हटने वाली नहीं थीं। उन्होंने गरजकर कहा –

“हम आज़ाद हिंदुस्तान के सिपाही हैं, मौत से क्यों डरें?”


गोली लगी, लेकिन झंडा नहीं झुका

जैसे ही जुलूस थाने के पास पहुंचा, पुलिस ने गोलियां चला दीं।
पहली ही गोली सीधे कनकलता बरुआ के सीने में लगी।

लेकिन उनकी मुट्ठी में तिरंगा मज़बूती से थामे रहा।
साथ ही मुकुंद काकोती नामक एक और स्वतंत्रता सेनानी भी गोली से शहीद हो गए।

कनकलता गिरते-गिरते भी झंडे को आगे बढ़ा गईं।
उनके साथी आंदोलनकारियों ने झंडा थाने पर फहराया और ब्रिटिश शासन को यह संदेश दिया कि
“गोलियां झेल सकते हैं, लेकिन तिरंगा झुकने नहीं देंगे।”


शहादत का प्रभाव

कनकलता बरुआ की शहादत ने असम ही नहीं, बल्कि पूरे देश में स्वतंत्रता आंदोलन को और अधिक उग्र बना दिया।
उनकी वीरता ने युवा वर्ग, विशेषकर महिलाओं में अदम्य साहस भर दिया।

इतनी कम उम्र में बलिदान ने उन्हें “वीरबाला” की उपाधि दिलाई।
उनकी कहानी आज भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणादायक गाथा के रूप में सुनाई जाती है।


स्मृति और सम्मान

आज असम में कनकलता गर्ल्स हाई स्कूल और कई संस्थान उनके नाम पर स्थापित हैं।
भारत सरकार ने भी उनकी स्मृति में कई सांस्कृतिक व शैक्षिक संस्थानों को उनका नाम दिया।

आजादी के 80 वर्ष बाद भी कनकलता बरुआ का नाम असम की धरती पर
बलिदान, साहस और महिला सशक्तिकरण का प्रतीक है।


निष्कर्ष

शहीद कनकलता बरुआ ने यह साबित किया कि आज़ादी की लड़ाई में उम्र और लिंग कभी बाधा नहीं बनते।
सिर्फ 17 वर्ष की आयु में उन्होंने तिरंगा हाथ में लेकर सीने पर गोली खाई,
लेकिन झंडे को झुकने नहीं दिया।

उनकी शहादत आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश देती है –
“देशभक्ति सबसे बड़ा धर्म है, और आज़ादी के लिए कोई भी बलिदान छोटा नहीं होता।”