राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को नहीं है झुंझुनू में “जनता के संग” की जरूरत?
शेखावाटी लाइव ब्यूरो | झुंझुनू, झुंझुनू में सूचना केंद्र के अधिग्रहण को लेकर शुरू हुआ पत्रकारों का विरोध आंदोलन अब जन-आंदोलन का रूप ले चुका है। जिलेभर के विभिन्न सामाजिक संगठनों, व्यापारिक संगठनों और आमजन ने भी पत्रकारों के संघर्ष को समर्थन दिया है। विरोध की यह लहर अब सरकार के दरवाजे तक पहुंच चुकी है, और जयपुर से आए सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के उप निदेशक कुमार अजय ने खुद आकर पत्रकारों को भरोसा दिलाया है कि जो भी फैसला होगा, वह पत्रकारों के हित में ही होगा।
लेकिन इसी बीच एक कार्यक्रम ने पूरे आंदोलन की भावना पर गहरा सवाल खड़ा कर दिया है।
विवेकानंद गौरव सम्मान: किस गौरव का सम्मान?
स्वामी विवेकानंद सेवा संस्थान द्वारा आयोजित गौरव सम्मान समारोह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य डॉ. इंद्रेश कुमार मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुए।
कार्यक्रम में जिले के 40 विशिष्ट व्यक्तियों को सम्मानित किया गया, जिसमें झुंझुनू के अतिरिक्त जिला कलेक्टर अजय कुमार आर्य भी शामिल रहे।
अब सवाल उठता है —
क्या यह वही एडीएम नहीं हैं जिन पर पत्रकारों ने सूचना केंद्र विवाद में “पूर्वाग्रह ग्रसित भूमिका” का आरोप लगाया है?
क्या इस सम्मान के पीछे कोई प्रशासनिक “ओब्लाइजमेंट” है या वाकई कोई लोकहितकारी कार्य?
जब जिला प्रशासन और पत्रकार आमने-सामने हों, तो ऐसे अधिकारी को मंच देना, क्या संघ की “जनता के संग” नीति से मेल खाता है?
पत्रकारों की नाराजगी और जनसंगठनों का समर्थन
झुंझुनू में सूचना केंद्र में पत्रकारों की प्रेस कॉन्फ्रेंस, पुस्तकालय और वाचनालय जैसी बुनियादी सुविधाएं छीनी जा रही हैं।
पत्रकारों ने आरोप लगाया है कि यह कदम एडीएम अजय कुमार आर्य की एकतरफा अनुशंसा के आधार पर उठाया गया, जबकि इससे सूचना के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को गहरी चोट पहुंची है।
अब जब जनता इस आंदोलन में खुलकर साथ आ चुकी है, ऐसे समय में संघ जैसे राष्ट्रवादी संगठन से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह प्रशासन से ज्यादा “जन भावना” के साथ खड़ा दिखे।
RSS की चुप्पी और मंचीय समर्थन — संयोग या प्रयोग?
डॉ. इंद्रेश कुमार जैसे वरिष्ठ आरएसएस नेता की मौजूदगी में एडीएम को सम्मानित किया जाना, एक राजनीतिक और सामाजिक सन्देश देता है।
जब जिले में पत्रकारिता को लेकर संकट हो और उसी समय प्रशासनिक लापरवाही के आरोपों से घिरे अधिकारी को सम्मानित किया जाए, तो यह प्रश्न उठना लाजमी है —
❝क्या अब संघ भी पत्रकारों की आवाज़ से ज्यादा सत्ता और अधिकारियों के साथ खड़ा हो रहा है?❞
निष्कर्ष: “चौथा स्तंभ” अकेला नहीं है
इस पूरे प्रकरण में पत्रकारों ने निडरता से अपने अधिकार की लड़ाई लड़ी, जनहित में सवाल पूछे, और लोकतांत्रिक मर्यादाओं के भीतर रहकर विरोध दर्ज कराया।
अब जबकि आरएसएस जैसे मंच पर विवादित अधिकारी को सम्मानित किया जा रहा है, इससे जनसंघर्ष की नैतिकता पर धुंधलापन आना स्वाभाविक है।
संघ को यह स्पष्ट करना होगा — वह “सत्ता” के साथ है या “सच” के साथ।
क्योंकि अगर जनभावनाओं से कटकर ही पुरस्कारों की परिभाषा तय होगी, तो फिर “गौरव” की जगह “गौरवशून्यता” स्थापित होगी।
सवाल तो अभी और भी उठेंगे……………………
