सरकार दिखती है, सुनवाई नहीं — अफसरशाही के आगे बेबस जनता
अदृश्य सरकार, प्रशासन गौण और दृश्यमान सिर्फ सरकारी तंत्र: परिणाम जनता परेशान
लोकतंत्र के वास्तविक मालिक परेशान, चौथे स्तम्भ को तरजीह नहीं
अदृश्य सरकार, प्रशासन गौण और जनता परेशान
जयपुर/झुंझुनूं। राजस्थान में भाजपा सरकार को दो साल पूरे होने वाले हैं, लेकिन धरातल पर सुधार की बजाय हालात और बिगड़े दिख रहे हैं। जनता की सुनवाई न के बराबर है और अफसरशाही बेलगाम हो चुकी है।
जहां पहले विपक्ष आरोप लगाता था कि “अफसर ही सरकार चला रहे हैं”, अब सत्तापक्ष के समर्थक भी यही कहने लगे हैं। सोशल मीडिया और जनसुनवाई केंद्रों पर जनता की पीड़ा साफ झलक रही है।
सरकार और प्रशासन दोनों मौजूद हैं, लेकिन समाधान कोई नहीं दिखता।
गहलोत सरकार से भजनलाल सरकार तक, ढर्रा वही
पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने चुनावी वर्ष में भारी सरकारी खर्च पर मेले जैसे सरकारी कार्यक्रमों की परंपरा शुरू की थी। वर्तमान मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा की सरकार भी उसी राह पर चलती दिख रही है।
जनता को उम्मीद थी कि इस बार कुछ बदलाव देखने को मिलेगा, पर उम्मीदें धूल में मिलती नजर आ रही हैं। कई लोग अब कहने लगे हैं—“पहले की कांग्रेस सरकार में कम से कम सुनवाई तो हो जाती थी।”
मीडिया और विपक्ष की आवाज अनसुनी
विपक्ष के विधायक भी विधानसभा में कह चुके हैं कि “पहले मीडिया की खबर पर तुरंत कार्रवाई होती थी, अब सरकार मीडिया और विपक्ष दोनों को नकार रही है।”
हाल ही में हिंडौन में स्वायत्त शासन मंत्री झाबर सिंह खर्रा और एक पत्रकार के बीच हुई झड़प इसका उदाहरण है। मंत्री ने मीडिया पर ही आरोप मढ़ते हुए कहा—“समस्याएं आप लोग ही पैदा करते हैं।”
सवाल यह है कि जब सूचना एवं जनसंपर्क विभाग हर जिले में मौजूद है, तो जनसमस्याओं के समाचार प्रशासनिक स्तर तक क्यों नहीं पहुंचते? क्या यह विभाग की असफलता है या अधिकारियों की असंवेदनशीलता?
झुंझुनूं में दिव्यांग को फटकार, संवेदनहीनता की मिसाल
झुंझुनूं में एक दिव्यांग व्यक्ति रास्ते के विवाद को लेकर कई बार तहसीलदार और कलेक्टर कार्यालय के चक्कर काट चुका है।
एक बार तो अधिकारियों ने उसकी महिला रिश्तेदार से कहा – “रोज-रोज इस अपंग को लेकर क्यों आ जाती हो?”
मीडिया की मौजूदगी में भी उसे फटकार और प्रताड़ना झेलनी पड़ी। यह दृश्य प्रशासनिक संवेदनशीलता की कमी का प्रतीक बन गया है।
मंत्री और प्रभारी मंत्री भी बेअसर
झुंझुनूं जिले में हाल ही में मंत्री सुमित गोदारा ने जिला स्तरीय बैठक में गिव अप अभियान की धीमी प्रगति पर नाराजगी जताई थी। उन्होंने सूचना एवं जनसंपर्क अधिकारी को आदेश दिया था कि हर तीसरे दिन मीडिया को डाटा साझा किया जाए।

लेकिन कई सप्ताह बीत जाने के बाद भी निर्देशों की पालना नहीं हुई।
इसी तरह, प्रभारी मंत्री अविनाश गहलोत के निर्देश भी कई मामलों में हवा हो चुके हैं — चाहे वह पत्रकार कक्ष विवाद हो या जनसुनवाई संबंधी शिकायतें।

जनता में बढ़ती निराशा, प्रशासन पर अविश्वास
प्रदेशभर में यह धारणा बनती जा रही है कि अब मंत्री बोलते हैं, अधिकारी नहीं सुनते।
जनता के आवेदन, जनसुनवाई और मीडिया रिपोर्ट—सब फाइलों में दबकर रह जाते हैं।
इस पर एक स्थानीय पत्रकार का कहना है—
“आज हालात ऐसे हैं कि जनता प्रशासन से नहीं, मीडिया से उम्मीद लगाए बैठी है। लेकिन जब मीडिया की आवाज भी अनसुनी हो, तो लोकतंत्र कमजोर होता है।”
निष्कर्ष: सरकार के लिए दर्पण बना मीडिया, पर आंखें बंद
मीडिया और विपक्ष किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के दर्पण होते हैं।
अगर सरकार इस दर्पण में अपना प्रतिबिंब देखने को तैयार नहीं है, तो जनकल्याणकारी योजनाओं का धरातल पर असर खत्म हो जाएगा।
राजस्थान की वर्तमान स्थिति यही दर्शा रही है कि सरकार दिख रही है, लेकिन सुनवाई कहीं नहीं।
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