जब भी हम भारत के स्वतंत्रता संग्राम की बात करते हैं, तो हमारे ज़हन में गांधी, नेहरू, सुभाष चंद्र बोस जैसे बड़े नाम आते हैं। लेकिन इसी इतिहास में ऐसे कई सच्चे नायक और नायिकाएँ छुपे हुए हैं जिनका जिक्र शायद ही किसी किताब में होता है। उन्हीं में एक नाम है ‘वीर महिला’ का ख़िताब पाने वाली कल्पना दत्त।
कल्पना दत्त का जन्म और प्रारंभिक जीवन
क्रांतिकारी कल्पना दत्त का जन्म 27 जुलाई 1913, बंगाल के चटगाँव जिले के श्रीपुर गाँव में जन्मीं कल्पना एक पढ़े-लिखे मध्यमवर्गीय परिवार से थीं। उनके पिता बिनोद बिहारी दत्त एक प्रगतिशील सोच वाले व्यक्ति थे, जिन्होंने अपनी बेटी को पढ़ने-लिखने की पूरी आज़ादी दी।
चटगाँव में आरंभिक पढ़ाई पूरी करने के बाद कल्पना ने आगे की शिक्षा के लिए कलकत्ता का रुख किया।
कॉलेज की जिंदगी और क्रांतिकारी झुकाव
बेथ्यून कॉलेज, कलकत्ता में जब कल्पना ने विज्ञान विषय से स्नातक की पढ़ाई शुरू की, वहीं से उनके भीतर क्रांतिकारी विचारों की नींव पड़ी। वह छात्र संघ की गतिविधियों में सक्रिय रहीं और यहीं उनकी मुलाकात हुई दो अन्य प्रेरणास्रोत महिलाओं – बीना दास और प्रीतिलता वाद्देदार से।
इनका असर यह हुआ कि कल्पना अब केवल किताबों तक सीमित नहीं रही, बल्कि वह खुद को एक क्रांतिकारी के रूप में गढ़ने लगीं।
सूर्यसेन और इंडियन रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ाव
कल्पना की ज़िंदगी में अहम मोड़ तब आया जब उनकी भेंट मास्टर दा यानी सूर्यसेन से हुई। यह वही समय था जब क्रांतिकारी आंदोलन अपने चरम पर था।
उन्होंने इंडियन रिपब्लिकन आर्मी (IRA) का हिस्सा बनकर न सिर्फ संगठन में सक्रिय भूमिका निभाई, बल्कि कई मिशनों में अग्रणी भूमिका निभाई।
कॉलेज के दिनों में वह प्रसिद्ध क्रांतिकारियों की जीवनियाँ पढ़कर बहुत प्रभावित हुईं और शीघ्र ही स्वयं भी कुछ करने के लिए आतुर हो उठीं।
चटगाँव शस्त्रागार हमला – निर्णायक मोड़
18 अप्रैल 1930 – इस तारीख को याद रखना ज़रूरी है। इसी दिन IRA ने चटगाँव शस्त्रागार पर हमला कर ब्रिटिश सत्ता की नींव हिला दी थी। यह घटना क्रांति की आग में घी का काम कर गई।
कल्पना दत्त घटना के बाद कलकत्ता से वापस चटगाँव वापस आती है और क्रांतिकारी सूर्यसेन के दल के साथ जुड़ती है।
भूमिगत जीवन और संघर्ष
हम सबने फिल्मों में देखा होगा कि क्रांतिकारी कैसे भेस बदलते हैं। लेकिन कल्पना ने इसे असल में जीया।
पुरुषों के कपड़े पहनकर, वह पिस्तौल, बम और हथियारों से लैस होकर अपने साथियों तक गोला-बारूद पहुंचाती थीं।
उनका निशाना इतना सटीक था कि उन्हें देखकर अंग्रेज सिपाही भी चकित रह जाते।
गिरफ्तारी और मुकदमा
16 फरवरी 1933 को गद्दारी के कारण सूर्यसेन को गिरफ्तार कर लिया गया। कल्पना अभी भी भूमिगत थीं, लेकिन मई 1933 में एक मुठभेड़ के दौरान पुलिस उन्हें पकड़ लेती है।
उन पर मुकदमा चला और 1934 में उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई, जबकि सूर्यसेन और तारकेश्वर को फाँसी।
जेल में गांधीजी से मुलाकात
कल्पना ने अपनी आत्मकथा “चटगाँव शस्त्रागार हमला” में लिखा है कि महात्मा गांधी उनसे मिदनापुर जेल में मिलने आए थे।
हालांकि गांधी उनके रास्ते से सहमत नहीं थे, लेकिन उन्होंने कहा –
“मैं तुम्हारी रिहाई की पूरी कोशिश करूंगा।”
जेल से रिहाई और नया अध्याय
1939 में गांधी और टैगोर के प्रयासों से कल्पना दत्त जेल से रिहा हो पाईं। इसके बाद उनका झुकाव भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ओर हुआ और पूरनचंद जोशी से उनका विवाह हुआ।
समाज सेवा और सक्रिय योगदान
कल्पना ने फिर इंडो-सोवियत सांस्कृतिक सोसायटी में काम करना शुरू किया और संस्कृति, विचारधारा, और समाज को जोड़ने वाले कामों में लगी रहीं।
उनके बेटे चाँद जोशी और सूरज जोशी ने भी उनके विचारों को आगे बढ़ाया।
वीर महिला का सम्मान और बाद का जीवन
1979, पूना में कल्पना दत्त को उनकी बहादुरी और योगदान के लिए ‘वीर महिला’ की उपाधि दी गई।
वह लंबे समय तक सामाजिक सरोकारों से जुड़ी रहीं और 8 फरवरी 1995 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा।
कल्पना दत्त से मिलने वाली सीख
कल्पना की कहानी हमें यह सिखाती है कि क्रांति का कोई लिंग नहीं होता, साहस का कोई पैमाना नहीं होता, और संघर्ष हर कोई कर सकता है – बस नीयत सच्ची होनी चाहिए।
FAQs About Kalpana Dutt
चटगाँव शस्त्रागार हमला, जिसमें उन्होंने रणनीति और क्रियान्वयन दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
1979, पूना में उनके साहसिक कार्यों के लिए उन्हें यह उपाधि दी गई।
हाँ, लेकिन गांधी जी फिर भी उनके साहस का सम्मान करते थे और रिहाई की कोशिश की।
“चटगाँव शस्त्रागार हमला” – इसमें उन्होंने अपने क्रांतिकारी अनुभव साझा किए हैं।