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पशु उपचार के लिए अनाधिकृत उपचार करने वाले झोला छापों के चंगुल में नहीं आएं

पशुओं में फैले लम्पी स्कीन रोग के नियंत्रण एवं प्रभावी रोकथाम के लिए नियमित पर्यवेक्षण करने के निर्देश

सीकर, जिला कलेक्टर अविचल चतुर्वेदी ने संबंधित विभागीय अधिकारियों को निर्देश दिये है कि वर्तमान में प्रदेश में गौवंशी पशुओं में फैले लम्पी स्किन रोग के नियंत्रण एवं प्रभावी रोकथाम के लिए उचित कार्यवाही की जाने की आवश्यकता है। उन्होंने निर्देशित किया है कि गौशालाओं एवं पशुगृहों में दैनिक साफ-सफाई पर विशेष ध्यान दिया जावे तथा ऎसे स्थानों पर गढडों में पानी एकत्रित नहीं होने दें। पशु आवासों पर नियमित रूप से सोडियम हाईपोक्लोराईट के 2 प्रतिशत घोल का छिडकाव कराया जावें। बीमार पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग बांधकर रखें तथा उनका समय पर पशुपालन विभाग के पशु चिकित्सा कर्मियों से ईलाज करावें। गांवों में स्थानीय पटवारी, ग्राम विकास अधिकारी, कृषि पर्यवेक्षक, कृषि सहायक आदि द्वारा रोग से प्रभावित आवारा गौवंश को पृथक स्थान पर रखे जाने की व्यवस्था तथा इस रोग से मृत पशुओं का निस्तारण वैज्ञानिक पद्धति से किसी चिन्हित स्थान, गोचर भूमि में करवाया जावें।

उन्होंने कहा कि पशुपालकों को समझाया जावे कि यह रोग पशुओं से मनुष्य में नहीं फैलता है ताकि ऎसे पशु के दूध को उबाल कर काम में लिया जा सकता है। यह बीमारी कोरोना की तरह हवा से नहीं फैलती है। इस कार्य के लिए स्थानीय निकाय के माध्यम से आमजन में रोग के संबंध में स्पष्ट जानकारी देते हुए रोग की रोकथाम तथा फैल रही भ्रांति को दूर किया जावे तथा प्रचार-प्रसार की सामग्री जैसे पम्पलेट  आदि का वितरण इन संस्थानों के माध्यम से करवाया जावें।

लम्पी स्कीन डिजीज के संबंध में दिशा-निर्देश

1- लम्पी स्किन रोग (गांठदार त्वचा रोग) के नियंत्रण के लिए पशुपालकों के लिए सलाह

· लम्पी स्किन रोग अथवा गांठदार त्वचा रोग गौवंशीय एवं भैंसवंशीय पशुओं का एक संक्रामक रोग है जो केप्री पॉक्स विषाणु के कारण होता है।

· यह रोग पशुओं से इंसानों में नहीं होता है।

2- रोग का प्रसार ः-

· रोगी पशु से अन्य स्वस्थ पशुओं में रोग का प्रसार रक्त चूसने वाले अथवा काटने वाले कीटों जैसे मच्छर काटने वाली मक्खी, जू, चींचडें एवं मक्खियों आदि से होता है।

· यह रोग, रोगी पशु के सम्पर्क से लार से, गांठों में मवाद, जख्म से संक्रमित चारे, पानी से भी स्वस्थ पशु में फैल सकता है।

· रोगी पशुओं तथा इनके सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों के आवागमन से भी रोग के फैलने की संभावना होती है।

3- रोग से बचाव के लिए पशुपालकों के लिए सलाह ः-

· गौवंशीय एवं भैंसवंशीलय पशुओं के इस संक्रामक रोग के नियंत्रण एवं रोकथाम का सर्वोत्तम उपाय, स्वस्थ पशुओं को संक्रमण की चपेट में आने से बचाव है। पशुओं के बाडे में मच्छर, काटने वाली मक्खी, जू, चींचडे एवं मक्खियों आदि रोगवाहकों का नियंत्रण करें।

· पशुओं के बाह्य परजीवियों की रोकथाम के लिए पशु चिकित्सक की सलाह पर परजीवी नाशक दवाओं का उपयोग करें।

· पशु आवास एवं उसके आस-पास साफ-सफाई एवं स्वच्छता पर विशेष ध्यान दें।

· पशु आवास के नजदीक पानी, मल-मूत्र एवं गंदगी एकत्र नहीं होने दे।

· पशु बाडे में अनावश्यक व्यक्तियों, वाहनों आदि का आवागमन नहीं होने दें।

· किसी भी पशु में रोग के आरंभिक लक्षण दिखाई देते ही उसे अन्य स्वस्थ पशुओं से तुरंत अलग कर दें।

· पशुओं को यथासंभव घर पर ही बांध कर रखें तथा अनावश्यक रूप से उसे बाहर नहीं ले छोडे। स्वस्थ, रोगी पशुओं को चराई के लिए चारागाह या बाहर ना छोडें।

· रोग ग्रस्त होने पर पशुओं को चराई के लिए चारागाह या बाहर ना छोडें। रोग ग्रस्त होने पर पशु को घर में पृथक स्थान पर रखें। किसी भी स्थिति में खुला ना छोडे । यह रोग के फैलाव का बड़ा कारण हो सकता है।

· रोग ग्रस्त क्षेत्रों में पशुओं का आवागमन नहीं करें।

· रोग से संक्रमित पशुओं की देखभाल करते समय सभी आवश्यक जैसे -सुरक्षा उपायों, जैसे साबुन एवं सैनिटाईजर का भी नियमित उपयोग करें, जिससे हम रोगी पशुओं से स्वस्थ पशुओं तक रोगवाहक नहीं बने।

· पशु बाडे, गौशालाओं एवं आवास के प्रवेश पर चूने की दो फुट चौडी पट्टी बनावें।

· यदि संभव हो तो रोगी पशुओं की देखभाल करने वाला व्यक्ति स्वस्थ पशुओं के समीप नहीं जाए। यदि यह संभव नहीं हो तो स्वस्थ पशुओं की देखभाल पहले करें एवं अंत में समस्त जैव-सुरक्षा उपायों के साथ रोगी पशु की देखभाल करें।

· रोग से संक्रमित परिसर, वाहन आदि को नियमित अंतराल पर सोडियम हाईपोक्लोरईट के 2 प्रतिशत घोल अथवा अन्य उपयुकत रसायनों द्वारा विसंक्रमित करें।

· पशु उपचार के लिए अनाधिकृत उपचार करने वाले झोला छापों के चंगुल में नहीं आएं तथा नजदीकी राजकीय पशु चिकित्सक की सलाह से ही उपचार करावें।

· रोगी गाय के दूध का उपयोग कम से कम दो मिनट तक उबाल कर ही किया जावें।

· रोगी पशु को संतुलित आहार, हरा चारा, दलिया, गुड, बांटा आदि खिलाये ताकि पशु में रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि हो सके।

4- मृत पशु के वैज्ञानिक विधि से निस्तारण ः-

· इस रोग से मृत पशुओं को खुले में फैंक दिये जाने से रोग के फैलने की संभावना बहुत अधिक रहती है।

· रोगी पशु की मृत्यु हो जाने पर उसे स्थानीय प्रशासन के सहयोग से शीघ्र 1.5 मीटर गहरे गड्ढे में चूना एवं नमक डालकर गाड देवें।

· शवों के निस्तारण के लिए स्थान के चयन के समय यह ध्यान रखें की यह स्थान रिहाईसी क्षेत्र, पशु गृहों, जल स्त्रोत तथा मुख्य मार्गों से पर्याप्त दूरी पर कोई ऊँचाई वाला स्थान हो।

· मृत पशु को निस्तारण के लिए ले जाते समय उसे अच्छी तरह से ढक कर परिवहन किया जावें तथा इस के लिए उपयोग में लिये जाने वाले वाहन को उपयोग के पश्चात सोडियम हाईपोक्लोराईट के 2-3 प्रतिशत घोल अथवा अन्य उपयुक्त रसायनों द्वारा विसंक्रमित करें।

· मृत पशु के चारे-दाने आदि को भी विसंक्रमित कर नष्ट कर दें एवं पुनः उपयोग में नहीं लें। पशु बाडे को सोडियम हाईपोक्लोराईट अथवा उपयुक्त रसायनों द्वारा पूर्णतया विसंक्रमित करें। अथवा जिस स्थान पर पशु की मृत्यु हुई है उस स्थान पर सुखी घास बिछाकर आंग जला दे, जिससे कि वह स्थान संक्रमण मुक्त हो जावें।

· रोग से सुरक्षा ही बचाव है।

रोग से बचाव के लिए गोट पॉक्स वैकसीन के उपयोग के संबंध में दिशा-निर्देश ः-

· रोग की रोकथाम के लिए संक्रमित ग्राम के चारों और पांच किमी. परिधि में बाहरी क्षेत्र से भीतर की ओर आते हुए स्वस्थ पशुओं में रिंग वैकसीनेशन किया जाता है।

· चार माह से अधिक आयु के समस्त स्वस्थ गौ-पशुओं में टीकाकरण किया जा सकता है।

· टीकाकरण पशुपालन विभाग के पशु चिकित्सक की सलाह से ही करवायें। किसी भी स्थिति में पशुपालक द्वारा सीधे ही अपने स्वयं के स्तर से अथवा अनाधिकृत व्यक्तियों से गोट पॉक्स वैक्सीन अथवा अन्य वैक्सीन नहीं लगवायें।

· टीकाकरण के पश्चात रोग प्रतिरोधक क्षमता आने में 14 से 21 दिन का समय लगता है। अतः इस अवधि में संक्रमण की संभावना हो सकती है।

· इस रोग से संक्रमित गौ-पशुओं का टीकाकरण नहीं किया जावें । अतः रोगग्रस्त क्षेत्र में टीकाकरण नहीं कराने की सलाह दी जाती है।

· रागी गौ-पशुओं के सम्पर्क में आये समस्त स्वस्थ गौ-पशुओं में टीकाकरण नहीं किया जावें, क्योंकि रोगी पशु के सम्पर्क में आने वाले स्वस्थ पशु में 14 से 28 दिन में रोग के लक्षण आ सकते है।

· संक्रमित गौ-पशुओं अथवा उनके सम्पर्क में आये गौ-पशुओं में टीकाकरण करने से रोग की तीव्रता बढ़ने की संभावना रहती है।

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