जननायक एवं प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम एक खुला पत्र पार्ट -1
झुंझुनू, मुख्यमंत्री जी आपने एक बार कहा था कि राजनीति में रगड़ाई होनी चाहिए, लेकिन यहां पर हम बात करेंगे कि जो नकारा अधिकारी हैं क्या उनकी भी रगड़ाई होनी चाहिए कि नहीं। बनाए गए सिस्टम के द्वारा कभी-कभी ऐसे व्यक्ति भी चयनित हो जाते हैं जो अपने कार्य क्षेत्र में नकारा ही साबित होते हैं ऐसी स्थिति में इन अधिकारियों की रगड़ाई होनी चाहिए। दूसरी बात आपने कही थी कि हर गलती कीमत मांगती है। यदि कोई अधिकारी अपने कार्य क्षेत्र में अपने कर्तव्यों का निर्वहन सही तरीके से नहीं कर पाता है। या वह गलती करता है तो यह गलती भी कीमत मांगती है या नहीं ? लेकिन प्रदेश के सरकारी तंत्र में ऐसा देखने को नहीं मिल रहा है। एक नकारा व्यक्ति को बचाने के लिए सरकारी तंत्र के उसके महकमे के लोग ही खड़े हो जाते हैं। शायद उन्हें भय रहता है कि कल इसी स्थिति का सामना हमें करना पड़े तो हमारी मदद करेगा। लेकिन इस सरकारी तंत्र के भाईचारे और अधिकारी के नकारा पन के चलते जनता के कार्य पीछे छूट जाते हैं और सिस्टम में लालफीताशाही हावी हो जाती है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए लोग कितनी भी अच्छी योजनाएं बना लें लेकिन इनकी परिणीति इन्हीं सरकारी तंत्र के द्वारा होनी है। यदि किसी तंत्र का कोई अधिकारी नकारा साबित हो तो उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए कि नहीं ? यह भी एक बड़ा सवाल है। यानी कि इनकी रगड़ाई होनी चाहिए कि नहीं ? यदि होनी चाहिए तो इनकी रगड़ाई करेगा कौन ? क्योंकि सिस्टम में बैठे हुए लोग तो सरकारी तंत्र में बैठे व्यक्ति को ही बचाने में जुट जाते हैं। आपकी सरकार ने जनता की भलाई के लिए बहुत सी योजनाएं लागू की हैं लेकिन इन योजनाओं को धरातल पर उतारने और सरकारी योजनाओं की जानकारी आम जनता तक अच्छी तरीके से पहुंचे इसके लिए जो अधिकारी जिम्मेदार हैं वह अपने कर्तव्य से विमुख होकर जिला मुख्यालय पर जाकर अन्य कार्यों में ही जुटे हुए हैं। दूसरी बात केंद्र में जब आप की कांग्रेस सरकार थी तो भारत की जनता को आपने एक बहुत बड़ा हथियार आरटीआई के रूप में दिया था। इसके लिए भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में आपकी सरकार को हमेशा से याद किया जाता रहेगा।
लेकिन प्रदेश में आप की सरकार है और आप के अधिकारियों ने आरटीआई जो कि जनता का पारदर्शिता के लिए एक हथियार है उसको ही कुंठित करके रख दिया है। तो बताइए बिना धारदार हथियार के जनता इस हथियार का करेगी क्या? लालफीताशाही ने ऐसे ऐसे हथकंडे अपना लिए हैं जिसके चलते उन्होंने आरटीआई कानून को फुटबॉल बनाकर रख दिया है। 2 सरकारी अधिकारियों के बीच यदि कोई पत्र व्यवहार सरकारी काम को लेकर किया जाता है। तो यह अधिकारी उसको निजी ठहरा देते हैं। सार्वजनिक हित के लिए जो सरकारी तंत्र के दो अधिकारियों के बीच के आधिकारिक पत्र व्यवहार को निजी जानकारी की संज्ञा कैसे दे दी जाती है। आरटीआई कानून में सबसे बड़ी बात यह है कि आम जनता को आज भी इसकी विधिवत कार्य प्रणाली के बारे में पूर्ण रूप से जानकारी नहीं है और जो भी जानकारी उपलब्ध है वह सिर्फ आधी अधूरी ही है जिसके चलते कार्यालयों में लगने वाली आरटीआई के प्रार्थना पत्र अधिकारियों द्वारा जवाब नहीं देने के चलते वहीं दम तोड़ देते हैं। अंगुलियों पर संख्या गिनने वाले लोग ही प्रथम और द्वितीय अपील तक पहुंचते हैं। सरल शब्दों में कहें तो सरकारी तंत्र के इन लोगों ने आरटीआई के अधिकार को भी लालफीताशाही में जकड़ लिया है। अब कर्तव्य से विमुख हुए अधिकारियों को जागृत करने के लिए कोई व्यक्ति सामने आता है तो सरकारी तंत्र ही कागजी कार्रवाई इधर से उधर करके उसको बचाने में जुट जाता है ऐसे नकारा अधिकारियों की बताइए कैसे हो फिर रगड़ाई?
विडंबना देखिए कि बहुत सारे तो जिला स्तर के ऐसे अधिकारी भी हैं जिनको इतना भी मालूम नहीं कि आरटीआई एक्ट के प्रावधान क्या है। कोई जानकारी मांगी जाती है तो वह उल्टा आरटीआई कार्यकर्ता पर ही सवाल खड़ा कर देते हैं कि इनकी मंशा सही नहीं है। तो क्या अब आरटीआई कार्यकर्ता को शपथ पत्र भी देना पड़ेगा अपने आवेदन के साथ कि मेरी मंशा सूचना मांगने के पीछे क्या है। सूचना मांगना आम आदमी का अधिकार है इन अधिकारियों को तो सूचना के अधिकार का बेसिक नियम भी नहीं पता है इससे बड़ी लोकतंत्र के अंदर अधिकारियों के कर्तव्य हीनता की विडंबना क्या होगी। प्रथम अपील जब होती है तो क्या जिस अधिकारी के समक्ष वह की जाती है वह उसकी सुनवाई करता है या नहीं करता है या सिर्फ निचले तबके के बाबू ही कागजी कार्यवाही करके खानापूर्ति कर देते हैं। यदि ऐसा है तो फिर प्रथम अपीलीय अधिकारी उस महकमे के बाबू को ही क्यों ने बना दिया जाए? बहुत से महकमे तो जिला मुख्यालय पर ऐसे भी चल रहे हैं जहां पर कोई ऐसा रिकॉर्ड संधारित नहीं किया जाता जिससे पता चले कि अब तक कितनी आरटीआई लगी हैं पहली बार आवेदन करने पर कार्यकर्ता को जानकारी नहीं दी जाती आगे की प्रक्रिया की जानकारी का अभाव कहे या जटिल प्रक्रिया के चलते बहुत सारे आरटीआई के आवेदन वहीं पर दम तोड़ देते हैं और फिर से जनतंत्र में जन हार जाता है और तंत्र की जीत हो जाती है। क्या यही लोकतंत्र की सार्थकता है ?