आगामी मंडावा विधानसभा उप चुनाव में
कांग्रेस 2008 के चुनाव के बाद कभी मंडावा में जीत नहीं पाई है और 2008 को भी तुक्का ही मान सकते है क्योकि यह चुनाव भी कांग्रेस की रीटा चौधरी अपने पिता कांग्रेस के कट्टवार नेता रहे है रामनारायण चौधरी के पूरा जोर लगाने के बाद भी भाजपा के बागी नरेंद्र कुमार को उस चुनाव में 405 मतों से हरा पाई थी जबकि नरेन्द्र कुमार ने यह चुनाव निर्दलीय लड़ा था। उससे अगला यानि कि 2013 में रीटा की टिकट काटकर कांग्रेस ने अपने प्रदेशाध्यक्ष डॉ चन्द्रभान अपनी जमानत जब्त करा बैठे। अपने आपको जेनेर्टिक कोंग्रेसी बताने वाली रीटा चौधरी ने अपनी ही पार्टी से बगावत करके कांग्रेस के उस समय के राजस्थान सबसे बड़े नेता यानि की प्रदेशाध्यक्ष के खिलाफ चुनाव लड़ा और चंद्रभान चारों खाने चित। अब बात करे 2018 की तो भाजपा ने अपनी भूल सुधारते हुये अपने जिताऊ उम्मीदवार नरेन्द्र कुमार को टिकट दिया जबकि कांग्रेस ने अनुशासनहीनता कर चुनाव लड़ने वाली व हारने वाली प्रत्याशी रीटा चौधरी को टिकट थमा दी और नतीजा फिर से वही रहा भाजपा के नरेन्द्र कुमार फिर से चुनाव जीत गये। और मण्डावा में पहली बार कमल खिला। यानि की कांग्रेस के गढ रहे मण्डावा में 2018 से पहले भाजपा का कोई कैंडिडेट जीत नही पाया था। यह तक कि भाजपा की पूर्व मंत्री व पूर्व विधानसभाध्यक्ष रही सुमित्रा सिंह जो की नौ बार विधायक रह चुकी थी उन्होंने भी प्रयास किया पर वे अपनी जमानत भी नहीं बचा पाई। पर 2018 के चुनाव के बाद भी कांग्रेस कुछ भी सबक लेती नजर नहीं आ रही है गहलोत और पायलेट की गुटबाजी का फायदा उठाकर फिर से टिकट ला सकती है। जबकि रीता चौधरी दो बार चुनाव हार चुकी है कांग्रेस को सोचना होगा कि लगातार हर चुनाव के बाद कांग्रेस का जनाधार घट रहा है। इसके पीछे क्या वजह है। जिस मण्डावा में कांग्रेस हारती नहीं थी वही लगातार दो चुनाव हार गये। और कांग्रेस आलाकमान अभी भी नये चेहरे को नहीं उतारना चाहती। या फिर कांग्रेस मण्डावा में इतनी कमजोर हो चुकी है कि उनके पास कोई जिताऊ चेहरा ही नहीं है। या फिर जैसे भाजपा ने झुंझुनू विधानसभा में लगभग तय कर रखा है कि यह से जीतना नहीं है। इसलिए हर बार यह प्रयोग करते है हो सकता है। कांग्रेस मण्डावा में पहले ही हार मानकर बैठा चुकी है। कि जितना तो यहा से है नहीं तो रीटा को भी नाराज क्यों करे।