अब नहीं रही पहले वाली बात
दांतारामगढ़,[लिखा सिंह सैनी] दांता में प्राचीन समय में होली के त्यौहार का उत्साह देखते ही बनता था । एक माह पूर्व ही होली का डंडा माह सुदी पूर्णिमा के दिन ही ‘राज परिवार’ के सानिध्य में रूपवा दिया जाता था । राज परिवार के सदस्यों के साथ ही गाजे बाज के साथ समस्त ग्रामवासी इसमें भाग लेते थे। होली का त्यौहार हिन्दू व मुस्लिम दोनों ही धर्मो के लोगों द्वारा सामूहिक रूप से मनाया जाता था। ग्राम के मुख्य चौपड़ बाज़ार में गींदड़ का आयोजन स्वर्गीय हीरालाल रैगर के सानिध्य में होता था जिसमें पुरे एक माह तक ढप व नगाड़ों की धुन पर सामूहिक नृत्य गींदड़ का आयोजन होता था जिसमें चेरी के रूप में महिला के वेश में सैन समाज व अन्य समाजो के लोगों द्वारा नृत्य किया जाता था। ‘धमाल’ चंग के साथ में ठाकुर मदन सिंह द्वारा भी नृत्य किया जाता था। स्वर्गीय ओलिया बक्श, गुलाब दास स्वामी, नारायण राणा, चौथु राणा, ठाकुर हेम सिंह एवम् ठाकुर अजीत सिंह भी चंग बजाकर ‘धमाल’ सुनाकर मनोरंजन करते थे। मोलाबक्श चौपदार भी होली के त्यौहार को उत्साहपूर्वक अपने हिन्दू समाज के भाई बहिनों के साथ मनाते थे। रंग पंचमी का त्यौहार होलिका दहन से लेकर पांच दिनों तक गैर पंचमी तक मनाया जाता था। तात्कालिक ठाकुर साहब मदनसिंह द्वारा अपने गढ़ परिसर में बड़े-बड़े लौहे के कड़ावों में रंग की व्यवस्था की जाती थी। जहाँ वे समस्त ग्रामवासियों के साथ होली खैलते थे व विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताओं का आयोजन करके इनाम वितरित करते थे व साथ ही मिठाइयाँ भी बाँटते थे। इसी प्रकार राज वैद्य परिवार भी अपने घर के सामने कड़ावो से रंग की व्यवस्था करवाता था। समस्त ग्राम में हर्षोल्लास के साथ जूलुस निकाला जाता था जिसमें रंग बिरंगी झांकियों के साथ बारात निकाली जाती थी। रंग पंचमी तक चलने वाले त्यौहार में हंसी ठिठोली चलती रहती थी लेकिन कोई भी बुरा नही मानता था। होली के त्यौहार को मनाने में हिन्दू व मुस्लिमों दोनों की ही समान भागीदारी होती थी। मुस्लिम समाज के बड़े बूढ़े व बच्चे भी हिंदुओं के इस त्यौहार पर हिंदुओ को बधाईयाँ देते थे व उनके साथ मिलकर रंग खेलते थे। इन सबमें राज परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। लेकिन आज सामाजिक सामन्जस्य के अभाव में लोगों की तीव्रगति से बदलती हुई मानसिकता ने समाज को बांटकर रख दिया है। एक समाज के लोगो को दूसरे समाज की खुशियों से कोई तालुकात नही है व पहले जैसा प्रेम व रौनक देखने को नही मिल रहा है। पहले होली पर बाह्य शहरों में रहकर मजदूरी करने वाले लोग भी आकर अपने परिवार की खुशियों में सरीक होते थे। धीरे-धीरे टूटते हुए संयुक्त परिवारों की वजह से साझा रहकर साथ-साथ मनाये जाने वाले त्यौहार को भी बली चढ़ा दिया गया है। लोगों ने सामुहिक होली को छोड़कर अपनी अलग होली जलानी शुरू करदी है। पहले पुरे गाँव की एक ही होली होती थी जो दांता ग्राम की एकता का प्रतीक होती थी। आधुनिकता की चकाचौन्ध ने गांवों के भी अमन चैन को छीन लिया है। होली दिवाली जैसे महत्वपूर्ण त्यौहार भी अपनी प्राचीन स्वरुप को खोते जा रहे है। क्या था क्या हो गया मेरा गांव कहाँ खो गया। कहाँ गए वे लोग जिनकी वजह से मेरे गांव की पहचान थी गांव की माटी ही नही यहाँ के वाशिंदे भी बदल गये है। जबकि पास ही के दांतारामगढ़ में पुरे गांव में एक तो गोपाल सागर व दुसरी राजकीय खेल मैदान में दो होली दहन होती है । एक का दहन पुजा अर्चना कर थानाअधिकारी करते है दुसरी का सरपंच । दांता में अपनी अपनी ढोलक अपनी अपनी राग है हर गली मोहल्लों में अलग अलग होली दहन किया जाता है । काश मेरा बचपन मुझे कोई लौटा दे आज मुझे मेरे गांव में भी अजनबी की जिंदगी जीनी पड़ रही है। होली जैसे त्यौहार ही तो थे जो हमें आपस में मिलजुलकर रहना सिखाते थे। लुप्त होती हुई संस्कृति को पुनः जीवित करने के लिए दांता में बुधवार को सैनी संस्थान द्वारा फतेहपुर के कलाकारों द्वारा गींदड़ व धमाल कार्यक्रम का आयोजन करवाया गया। आज हमें जरूरत है ,एक ऐसी मशाल की जो इसे नयी रोशनी व चेतना दे सके। क्या हम ऐसे ही हमारी परम्पराओं की रेंगती हुई मृत्यु को देखते रहेगें या पहले जैसी परम्पराओं जैसी होली का त्यौहार सभी मिलकर बड़े उत्साह के साथ मिलजुलकर मनायेगें । आओ सभी मिलकर इस होली का त्यौहार पहले जैसा मनाये की काश हमारा बचपन लौट आए ताकि होली जैसे त्यौहारों का इस बार रंग फीका नही लगें।