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लेखक – जगदीश लाटा
अरविंद केजरीवाल की राजनीति का नया नियम था—अगर जनता मुफ्त बिजली-पानी से संतुष्ट न हो, तो उसे मुफ्त तीर्थयात्रा पर भेज दो। और अगर वह भी काम न करे, तो हनुमान चालीसा पढ़कर दिखाओ। सो, वे कभी हनुमान भक्त बनते, कभी अयोध्या दर्शन करवाते और कभी मंदिरों में माथा टेकते। लेकिन उन्हें यह कौन समझाए कि यह राजनीति पापड़ बेलने जितनी आसान नहीं है—क्योंकि जो लोग पहले से ही भभूत रगड़कर बैठे हैं, वे किसी नवनिर्मित भक्त की आरती में शामिल नहीं होने वाले।
केजरीवाल को लगा कि अगर बीजेपी हिंदुत्व की राजनीति कर सकती है, तो वे क्यों नहीं? शायद उन्हें लगा कि मंदिर में घंटी बजाने और ‘जय श्री राम’ बोलने से वोटों की बरसात होने लगेगी। लेकिन यह भूल गए कि हिंदुत्व की राजनीति बीजेपी का कॉपीराइट है, और इस खेल में बीजेपी किसी को ‘सब-लाइसेंस’ नहीं देती। दिल्ली के परिणाम इस बात का ऐलान कर रहे हैं कि बीजेपी के हिंदुत्व मार्केट में कोई और दुकान खोलने की कोशिश करेगा, तो उसका वही हश्र होगा जो आम आदमी पार्टी का हुआ।
दरअसल, केजरीवाल हिंदुत्व की गली में बिना नक्शे के भटक रहे थे। उन्होंने यह मान लिया था कि जनता शिक्षा और स्वास्थ्य से ऊब चुकी है और अब उसे धर्म की खुराक चाहिए। मगर वे इस बात को नहीं समझ पाए कि बीजेपी के ‘हिंदुत्व उद्योग’ में उनके लिए कोई नौकरी नहीं है। यह एकाधिकार वाली दुकान है, जहां प्रतियोगिता की कोई जगह नहीं।
सवाल यह उठता है कि कांग्रेस भी इससे कुछ सीखेगी या नहीं? कांग्रेस भी कभी-कभी ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की मलाई चाटने की कोशिश करती है, लेकिन नतीजा वही निकलता है—न घर की, न घाट की। राहुल गांधी कभी कैलाश मानसरोवर जाते हैं, कभी जनेऊ दिखाते हैं, और कभी मंदिरों में दौरे करते हैं। लेकिन जनता को जब हिंदुत्व चाहिए होता है, तो वह असली ब्रांड खरीदती है, डुप्लीकेट नहीं।
अगर वाकई राजनीति करनी है, तो समझना होगा कि बीजेपी से ‘हिंदुत्व कॉपी’ करने से कुछ नहीं मिलने वाला। अगर कांग्रेस भी केजरीवाल की तरह ‘अर्ध-साम्प्रदायिक’ राजनीति में कूदेगी, तो उसका भी हाल वही होगा—तीर्थ यात्रा मुफ्त होगी, मगर मंज़िल कहीं नहीं मिलेगी।