व्यंग्य

राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता की व्यथा पर सुरजीत सिंह का व्यंग्य- करे कोई, भरे प्रवक्ता

जब-जब टीवी पर बहस के फटे में टांग की तरह फंसे किसी पार्टी प्रवक्ता को देखता हूं और ‘ऊल’ सवालों के ‘जूल’ जवाब देते देखता हूं, तो मन में पहला खयाल यही आता है कि करे कोई, भरे प्रवक्ता! जो दिन को रात महज इसलिए बताए कि इस सरकार के राज में नाउम्मीदी का घनीभूत अंधेरा छंटता ही नहीं। रात को दिन इसलिए कहे कि जब से उनकी सरकार आई है, रातें भी दिन की तरह प्रकाशवान हैं। काले झूठ को निर्मल सच साबित करने में जो जान लड़ा दे, ऐसा करते समय जिसके चेहरे पर हास्य जरा भी नहीं हो, मगर तर्क हास्यास्पद हों, दूसरों को न बोलने देने की प्रवक्ताई जिद पाले बैठा हो, वह शर्तिया प्रवक्ता है- किसी पार्टी का, सरकार का, विपक्ष का। आजकल संगठनों के भी होते हैं। देखा जाए, तो इससे पहले वह भी अच्छा भला, हंसता-बोलता, विवेकसम्मत, सुरुचिपूर्ण इंसान था, उसका कसूर महज इतना था कि वह ‘वक्ता’ अच्छा था, पार्टी ने ‘प्र’ के झाड़ पर चढ़ाकर जवाबी मोर्चे पर धकेल दिया। गोया जल तू, जलाल तू, आई बला को टाल तू! किस्मत एवैं हों, तो ऊंट पर कुत्ता ही नहीं काटता, आदमी प्रवक्ता भी बना दिया जाता है। अच्छे-खासे वक्ता में ‘प्र’ की प्रधानता होते ही सारा संतुलन बिगड़ जाता है। वह आयं-बायं शब्दों से विरोधियों की मार-पीट शुरू कर देता है। यह भी ध्यान नहीं रहता, खुद भी लहूलुहान हो रहा है।
जो जिंदा सवालों के जवाब में गड़े मुर्दे उखाड़े और वर्तमान की जवाबदेही में इतिहास के निशानदेह पन्ने फाड़े, बोलते-बोलते चीखने लगे, सामने वाले के लगभग कपड़े खींचने लगे, रुकावट डालना प्रवक्तासिद्ध अधिकार समझता हो, इसके लिए खेद जिसे लेशमात्र भी नहीं हो, वही तो प्रवक्ता है यारो। जवाबदेही बेशक सरकार की होती है, किसी पार्टी की होती है, लेकिन जवाब प्रवक्ता दे, दे प्रवक्ता। जो मुंह में आए अनर्गल बोलते मंत्री-सांसद-विधायक हैं, क्लास प्रवक्ता की लगती है। कुछ भी बोलकर गंदगी कोई मंत्री-सांसद-पार्टी पदाधिकारी फैलाये, सफाई का जिम्मा प्रवक्ता का। स्टिंग मंत्री का होता है, पकड़ा मीडिया में फौरन प्रवक्ता जाता है। घोटाला मंत्री निपटा गए, प्राइम टाइम में निपट ये रहे हैं।
दरअसल प्रवक्ता पार्टी के छेदों पर लगा पैबंद है। ऐसा धोबी घाट भी समझ सकते हैं, जहां सरकारों की करतूतों के मैले अंत:वस्त्र धोये जाते हैं।
हाय, प्रवक्ता बनने से पहले क्या शक्ल थी, क्या अक्ल थी, अब क्या हो गई। नूर चला गया। बिन चांदनी के कुमुद की तरह कुम्हला गया। आंखें धंसकर ऐसी हो गई हैं, जैसे ये आंखें नहीं, बड़े राज छुपा रखे हैं इनमें। काले घेरे ऐसे फैल गए, जैसे रिस कर सरकार पर लगे धब्बे।
पता है हर सवाल उससे है, हर जवाब उसके पास होना चाहिए। काया से कितना ही दुर्बल हो, लेकिन पार्टी की ओर से वह जवाबों का मोटा ब्रीफकेस है। अब तो पार्टियां ढंग का प्रवक्ता बनाकर ही निश्ंिचत हो लेती हैं। वह ऐसी बिल्डिंग की पहरेदारी में बैठा है, जिसके भीतर निरन्तर कुछ न कुछ गड़बड़ चल रही है और वह हुर्र हुर्र, दूर दूर बोलकर किसी को पास नहीं आने दे रहा।
वह लाख गुमान पाले, लेकिन मेरी नजर में धरती का सबसे दयनीय प्राणी वही है। अंत में आकर भयानक किस्म का बोर व्यक्ति हो जाता है, जो बहुत शोर करता है।

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