झुंझुनूव्यंग्य

भारत बंद के स्कोप – सुरजीत सिंह

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अब भारत बंद घर की खिडक़ी-दरवाजे बंद करने से भी आसान वर्क हो गया है। कहीं से परमिट भी नहीं चाहिए। एकबारगी उठकर दरवाजा बंद करने में आलस आ सकता है, तू कर यार तू कर, उधर ही तो बैठा है, लौटते समय बंद करते आना, मैं क्यों करूं, जिसने खोला, वही करे जैसी छोटी-मोटी तकरार हो सकती है, लेकिन भारत बंद के लिए तो कोई बहस नहीं होती कि काहे करें भारत बंद, क्या बिगाड़ा है भारत ने तेरा, बल्कि बंदे को बंद का खयाल आते ही होड़ लग जाती है, मैं करूंगा, स्साले को मैं करूंगा और क्लिक भर से हो जाता है भारत बंद। एक अदद स्मार्ट फोन कम्बख्त भारत पर शटर डाल सकता है। जब से लोगों ने सोशल सिस्टम से सोशल साइट्स की नागरिकता ली है, ऐसे काम चुटकियों में होने लगे हैं। अब देखिए, जो पेंट की जिप बंद करना आदतन भूलते रहते हैं, मगर इस भारत बंद का नाम आते ही, देखना हम छोड़ेगा नई इस भारत बंद के बच्चे को।
सब कुछ खुला देखकर बंदातुर लोग रोज ही फोड़ोत्सुक से हाथों में जुंबिश से परेशान रहते हैं। खुला वातावरण, उन्मुक्त हवा, कारोबारी उम्मीदों से भरी-पूरी दुकानें, गदराया रोड, चलता-फिरता ट्रेफिक, खुले-खुले घर और दिनचर्या का खुला हुआ पूरा रोजनामचा, हाय, बंद का इतना जबर्दस्त स्कोप है, तो कौन न हाथ-पांव खोले! अपार भीड़ है, वह भी पैदल। विराट देश है। उसमें अपार संभावनाएं हैं। बंद से लेकर हाथ खोलने तक की। दिल से लेकर दिमाग तक बंद करने की। सरकार के आंखें बंद रखने की।
भारत बंद की सबसे बुरी बात यह होती है कि इतनी बंद उर्वरता देख तय ही नहीं हो पाता, किधर से, क्या-क्या बंद करें! पसोपेश सिर के बल खड़ा हो जाता है। कोई सरकारी दफ्तर, थाना, कचहरी, तहसील, बस, ट्रेन हों, तो फूंक ही डालें। पब्लिक हो, तो कूट-काट कर कह दें, बुरा ना मानो भारत बंद है! पब्लिक प्रॉपर्टी हो, तो बाप का माल समझ पल में खाक कर दें! लेकिन यहां तो विराट भारत से निपटना है। स्साला तय ही नहीं होता क्या जला दें, क्या छोड़ दें! किसे तोड़ दें, किसे खाली फोड़ दें! खाली नारा देकर भी काम नहीं चल सकता कि ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे हजार’। यहां तो हजारों की तादाद में वाहन, दुकानें, थडिय़ां, गुमटियां, बसें, दफ्तर टुकड़े-टुकड़े करके दिखाने होते हैं। बड़ी चुनौती है फूंकने की। लेकिन सबसे अच्छी बात भी यही होती है कि कहीं से भी, कुछ भी बंद कर सकते हैं। जो चीज भी दृश्यव्य है, बंद का मैटेरियल है।
बंद में मुहूर्त तो कुछ होता नहीं है। गली में ठेले वालों को उलटकर बंद का भव्य तोड़ारम्भ होता है। फुटपाथ पर फुटकर विक्रेताओं को उजाडक़र, फल-सब्जियां उलट-पलटकर, लूट-पाट कर बंद का टेस्ट और ट्रेलर दोनों जारी हो जाते हैं। बंद में हर दुकान लुटनोन्मुखी सी दिखती है। पहले लूटा, विरोध किया उन्हें कूटा, फिर विधिवत् बंद का आक्रोश फूटा। चौराहे पर पुलिस की गुमटी दिखी, उसे जलाकर ‘बंद के यज्ञ’ की अग्नि प्रज्वलित की। सरकारी बसों को अग्नि के सुपुर्द कर आहूति दी। लठाधिकार के तहत स्कूली बसों के शीशे फोड़े। बच्चों में दहशत से बंद परवान चढ़ता है। चलती-फिरती गाडिय़ों को रोककर उन्हें सामथ्र्य अनुसार लठ प्रदान किए गए। कुछ को अग्नि दिखाई गई। दफ्तर इसलिए फूंक डाले गए कि कहीं ऐसा ना लगे कि यह कैसा भारत बंद, दफ्तर एक ना फूंका गया। बंद उत्पातियों की सारी इज्जत मिट्टी में मिल जाए। टूटे बदन वाली दिशाहीन पटरियों के सामने ट्रेन की बेबसी देख सचमुच भारत को भी दिशाभ्रम हो जाता है।
और कोई भी बंद तब तक अधूरा है, जब तक चप्पे-चप्पे पर पुलिस नहीं, बल्कि भय का पहरा ना हो जाए, भारत के लोग नागरिक की हैसियत से परेशान ना हों, एम्बुलेंस रोककर सौ-पचास लोगों की सांसें बंद न हो जाएं और लड़कियां और महिलाओं की आबरू सरेआम खतरे में आ जाए, तो भारत कहीं मुंह छुपा लेता है। पुलिस पर पत्थर बरसाकर खदेड़ दें और कानून व्यवस्था सब बंद उत्पातियों के सामने लेट जाए, तो बंद की पूर्णाहुति समझ लीजिए, जो कि असल में राजनीति का हवन कुंड है।
कुछ लोग आजकल इसी तर्ज पर बिना तर्क भारत बंद कर रहे हैं। बात-बात पर बंद की एलानिया धमकी तो आम हो चली हैं। अब जिस तरह भारत बंद होने लगा है, मुझे तो लगता है इस मामले में बहुत स्कोप है। चाहें तो रोज ही भारत को बंद लगवा दें। कल को कोई मुर्गी चुराने से लेकर पड़ौसी द्वारा लॉन से फूल-पत्तियां तोड़ लिए जाने तक को लेकर बंद का आह्वान कर सकता है। भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, गरीबी, जातीयता, बलात्कार, धर्मान्धता, कट्टरता के खिलाफ करें कोई एलियन्स आकर भारत बंद

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