गर्मियों में वातावरण के तापमान में वृद्धि हो जाती है, जिससे तापमान पशुओ के लिए आवश्यक ‘थर्मोन्यूट्रल जोन’ से अधिक हो जाता हैं| राजस्थान के कुछ भागों में तो तापमान 50 डिग्री तक हो जाता हैं| वातावरण का तापमान बढ़ने से पशुओं की शारीरिक क्रियाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं| सामान्यतया पशुओ को अपच, चारा खाने में अरुचि, दूध उत्पादन में कमी, प्रजनन क्षमता में कमी, रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी इत्यादि समस्या होती हैं और पशु “गर्मी जन्य तनाव” (heat stress) में रहता हैं|
अधिक गर्मी में पशुओ पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव-
- पशुओ में पानी की आवश्यकता बढ़ जाती है| पर्याप्त पानी नही देने पर डिहाइड्रेशन हो जाता है|
- पशुओ की सुखा चारा खाने की दर कम हो जाती है, जिससे उसकी उत्पादन क्षमता में कमी आती है|
- लू चलने पर पशु ताप-घात (heat stroke) का शिकार हो सकता हैं|
- पशुओ की पाचन क्रिया में बदलाव होता है, किण्वन क्रिया प्रभावित होने से अपच हो सकती हैं|
- पशु की श्वसन दर बढ़ जाती है, जिससे भी उर्जा का क्षय होता है|
- पशुओ के शरीर की त्वचा सीधे सूर्य की किरणों के संपर्क में आने पर रुखी, खुश्क, डिहाइड्रेटेड हो जाती हैं|
- पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाने से रोग ग्रस्त होने की अधिक सम्भावना रहती हैं|
- भैंस, अधिक गर्मी के मौसम में ताव/ इस्ट्रस(oestrus) में नही आती हैं, नर पशु के वीर्य की गुणवत्ता प्रभावित होती है और प्रजनन क्षमता में कमी आती हैं|
- पशुओं के “गर्मी जन्य तनाव” में रहने से शरीर भार कम होने लगता हैं|
- दुधारू पशुओ के दूध उत्पादन में भारी कमी आती हैं| परन्तु उचित प्रबंधन और संतुलित आहार देकर उत्पादन को बनाया रखा जा सकता है|
अधिक गर्मी में पशु प्रबंधन के तरीके-
- पशुओ की छायादार एवं हवादार स्थानों पर बांधे| आसपास पेड़ होने पर पशु-आवास का तापमान कम रहता हैं|
- पशु आवास में खिड़की और दरवाजों पर टांट/ जूट के बोरे बांधे और उनको समय-समय पर गीला करते रहे ताकि लू चलने पर वो ठंडी हवा बन अन्दर जाये|
- पशु आवास की छत ऊष्मा की कुचालक हो इसके लिए एस्बेस्टस शीट की बनाई जाये परन्तु, अगर कंक्रीट या टीनशेड की बनी हो तो उस पर 5-6 इंच मोटी घास की परत अथवा नीचे कार्ड-बोर्ड/ गत्ते की परत बना देने से आवास ठंडा रहता है|
- पशुओ को पीने के लिए पर्याप्त साफ़ पानी देवें और प्रतिदिन 3-4 बार पानी पिलाये|
- पशुओं को प्रतिदिन 1-2 बार जरुर नहलाएं|
- पशुओं को अगर उपलब्ध हो सके तो हरा चारा नियमित रूप से देवे क्योंकि ये पोष्टिक भी होता हैं और शरीर में जल की पूर्ति भी करता हैं|
- पशुओं को संतुलित आहार देवें और पशु आहार में नमक और मिनरल-मिक्सचर अवश्य शामिल करें| मिनरल मिक्सचर नही देने पर “पाइका” (due to phosphorus deficiency) रोग हो सकता है जिसमे कि पशु मिट्टी, हड्डियाँ, कपडे और अपशिष्ट पदार्थ खाने लगता है|
- गर्मी के बाद मानसून आते ही पशुओं में गलघोंटू, लंगड़ा बुखार और फड़किया रोग होने की संभावना रहती है अतः इन रोगों से बचाव हेतु टीकाकरण पूर्व में ही ग्रीष्म ऋतू में ही करवा लेना चाहिए|
- पशुओ को हर 3 माह के अन्तराल में पशु-चिकित्सक की सलाह पर कृमिनाशक दवाई अवश्य देवें| पशु के जूं-चिचड़ होने पर बाह्य-परजीवी-नाशक दवा का इस्तेमाल बहुत ही सावधानी से करें|
- पशु आवास में मक्खी-मच्छर मारने हेतु सावधानी से दवा का छिडकाव करे|
- देशी नस्लें तो गर्मी सहन कर लेती हैं परन्तु, उपलब्धता के अनुसार विदेशी और संकर नस्ल के पशुओं के लिए पंखे और कूलर भी काम में लिए जा सकते हैं|
- गर्मियों में सामान्यतया ताप-घात, दस्त, और बंद-लगना/कब्ज इत्यादि रोग हो जाते है जिनका तुरंत पशु-चिकित्सक से इलाज करवाना चाहिए|
गर्मियों में पशु आहार-
पशु आहार में मौसम के अनुसार धीरे धीरे बदलाव किया जाना अत्यंत आवश्यक हैं| पशुओ को प्रतिदिन 50 ग्राम मिनरल-मिक्सचर जरुर देवे| दाना-मिश्रण में पिसे हुए जौ (crushed barley) और गेहूं की चोकर की मात्रा बढ़ाई जा सकती हैं| खल और दाल-चूरी के अलावा रिजका और बरसीम भी प्रोटीन के उत्तम स्त्रोत होते हैं| हरे चारे हेतु ज्वार, बाजरा, मक्का और हाइब्रिड नेपियर इत्यादि चारा फसलों का प्रयोग किया जाना चाहिए| पहले से तैयार की गयी ‘साइलेज’ और ‘हें’ भी खिलाई जा सकती हैं| पशुपालक मोटे तौर पर देखे तो सान्द्र आहार/ बांटा (concentrate feed) घर पर भी निम्न अनुसार बना सकता है-
“एक तिहाई भाग अनाज/ दाने + एक तिहाई भाग मूंगफली/तिल/सरसों की खल + एक तिहाई भाग चापड-चूरी”