सूरजगढ़[कृष्ण कुमार गाँधी ] पुरे विश्व में 1 मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है सरकारें बड़े-बड़े समारोह आयोजित कर जश्न मनाती है। लेकिन जिस मजदूर के नाम पर नेता समारोह आयोजित कर तालियां बटोरते है वो गरीब मजदूर उन समारोहों में कहीं दूर दूर तक नजर नही आता है। वो बेचारा अपने दो जून की रोटी के जुगाड़ में किसी पूंजीपति सेठ साहुकार के यहां चिलचिलाती धूप में मजदूरी कर रहा होता है। किसी भी देश की तरक्की उस देश के किसान और मजदूर पर निर्भर करती है जैसे जिस तरह एक मकान को खड़ा करने में मजबूत नींव की जरूरत होती है ठीक वैसे ही किसी समाज, देश, उद्योग व व्यवसाय को खड़ा करने में मजदूर की विशेष भूमिका होती है, लेकिन मजदूर के पसीने की कीमत कोई नही समझता वो दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करता है फिर भी उसको उसकी मेहनत का उचित फल नही मिलता है। जब भी किसी मजदूर के साथ कार्यस्थल पर कोई हादसा हो जाता है जिसमें मजदूर अपंग हो जाता है या उसकी मौत भी हो जाती है तो पूंजीपति लोग उस मामले को कुछ राशि देकर वहीं दबा देते है और उस मजदूर के परिवार के सामने भूखों मरने की नौबत तक आ जाती है। सरकार मजदृर दिवस तो मनाती है लेकिन मजदूर के हित के बारे में कभी कोई बात नही करती। सरकार कभी नही कहती कि इस एक दिन तो मजदूर वर्ग को सवैतनिक अवकाश दिया जाए। जिससे उस रोज धूप में पचते श्रमिक को भी अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो उसे भी लगे की सरकार उसको भी इस देश के विकास में भागीदार समझती है।
आज भी रोता है न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने का रोना
आज भी देश का मजदूर वर्ग अशिक्षा व नासमझी के कारण अपनी न्यूनतम मजदूरी का रोना रोता रहता है। आज भी देश में बंधुआ मजदूरी के चलते पुरे परिवार एक दो आदमी की मजदूरी के बदले कठिन परिश्रम करते है। आज भी मजदूरों के परिवार पूंजिपतियों व मालिकों के रहमों करम पर पलते है। वो जब अपने अधिकारों की बात करते है तो उनको काम से निकाल दिया जाता जिससे अगले ही दिन उसके परिवार के सामने रोजी रोटी का संकट खड़ा हो जाता है।