मण्डावा [ सूर्यप्रकाश लाहोरा ] रंग और उमंग का पर्व होली भले ही इन दिनो नाना प्रकार की विकृतिया आने से बदरंग होने लगा हो किन्तु शेखावाटी जनपद का मण्डावा कस्बा आज भी शालीन होली मनाने वाला एक आदर्श कस्बा है। मण्डावा की होली वृन्दावन जैसी है। मण्डावा में धुलन्डी के दिन निकलने वाले जुलुस में होली के रसियों द्वारा बजाए जाने वाले चंग लोक गवैये के गाए गीत व धमाल के स्वर तथा नर्तकों के थिरकते अंगों में मस्ती और मधुरता तो भरपूर होती है पर फूहडपन जरा भी नहीं होता। त्वचा को बदरंग करने वाले रंगों का इस्तेमाल कतई नहीं होता बल्कि रंग – बिरंगी गुलाल का जमकर प्रयोग होता है । आम तौर पर जब होली के रसिए नाचते -गाते जुलूस के रूप में निकलते है तो महिलाओं को घर से बाहर निकलना तो दूर घर में किसी कोने से बाहर झांकना भी मुश्किल होता है परन्तु मण्डावा में तो महिलाए घरों की छतों पर और अपनी गलियों व आम रास्तो में बेझिझक होली के आयोजन का पूरा आनन्द उठाती है । मण्डावा की यह आदर्श होली वाकई लाजवाब है ।
झुझुनू जिले के मण्डावा कस्बे में लगभग सात दशक से मर्यादित होली मनाने की परम्परा चली आ रही है । यह आयोजन सांस्कृतिक और चारित्रिक मर्यादाओं के साथ साम्प्रादायिक सदभाव को स्थापित करने वाला भी हेै और इसमें विदेशी पर्यटक भी दिल खोलकर हिस्सा लेते है । सर्व हितैषी व्यायामशाला के संस्थापक वैद्य लक्ष्मीघर शुक्ल ने मण्डावा में होली को फूहडता से मुक्त करने का बीडा उठाया और इस साफ -सुथरे आयोजन की बुनियाद रखी जो अब एक स्थाई वार्षिक आयोजन का रूप ले चुकी है i इस व्यायाम शाला के धर्म ध्वज की भव्य सवारी के साथ कस्बे में धुलंडी के दिन जुलूस निकाला जाता है जिसमें चंग नर्तको के टोलिया नाचते – गाते चलते हेै । जिस रास्ते से यह जुलूस निकलता है उस पर घरो की छत, चबूतरे आदि पर महिला व युवतिया दर्शकों से अटे रहते है । रंग और अश्लील गायन का प्रदर्शन नहीं होता बल्कि गुलाल और अबीर का खुलकर प्रयोग किया जाता है । यह जुलूस सभी समुदायो के मोहल्लो से गुजरता है और सभी मजहब के लोग इसमे अपनी भागीदारी निभाते है i यहा तक की मुस्लिम प्रतिभागी ढोल और ताशे बजाते है । मण्डावा की होली का पर्व साम्प्रादिक सदभावना का प्रतिक पर्व कहा जाए तो अतिश्योक्ति नही होगी ।