दांतारामगढ़ के पहले पत्रकार थे शेखावत, इनका जाना-पहचाना कॉलम था – “आओ गाँव चलें”
बिशनसिंह की टिकट पर लड़े थे भैरोंसिंह प्रथम चुनाव
दांतारामगढ़ (प्रदीप कुमार सैनी) बसंत पंचमी के दिन 5 फरवरी 1929 को खाचरियावास में जन्मे बिशनसिंह शेखावत माड़साहब वास्तव में सरस्वती माता के पुजारी थे। उन्होंने सादा जीवन, नेक विचार व ईमानदारी से जीवन पर्यन्त कर्मचारी, शिक्षक समुदाय व बेसहारा व्यक्तियों की समस्याओ के लिए संघर्ष किया। उन्होंने कर्मचारियों को बताया कि कर्मचारियों की एकता और संघर्ष की बदौलत ही सरकार से अपनी मांगें मनवा सकते हैं। इसी उद्देश्य से उन्होंने अनेक कर्मचारी संगठनों को एक करके अखिल राजस्थान राज्य कर्मचारी संयुक्त महासंघ का गठन किया। लंबे समय तक महासंघ के प्रांतीय अध्यक्ष रहे। उनके कर्मचारियों के हितों के लिए किये गये संघर्ष को आज भी याद किया जाता हैं। केंद्र के समान राज्य कर्मचारियों के वेतनमान, मकान भत्ते, चिकित्सा सुविधाएं, महंगाई भत्ते, पेंशन की सुविधाएं, कर्मचारियों की नौ-अठारह-सत्ताईस वर्ष की सेवा पूर्ण होने पर चयनित वेतनमान जैसी सुविधाओं के लिए उन्होंने अनेक बार संघर्ष किया। इसके लिए कर्मचारियों को एकजुट कर कई बार आंदोलन किये। हजारों कर्मचारियों के साथ कई बार जेल यात्राएं की और कई बार भूख हड़ताले की। राजस्थान में व्यास के सूबेदारी शासन का श्रीगणेश नामक उनका लेख जब सन्मार्ग में प्रकाशित हुआ तो राजनीतिक हलकों में हलचल मच गई। 1950 में वे इसके उपसंपादक भी रहे। बिशन सिंह ने भारतीय जनसंघ के राजस्थान कार्यालय मंत्री रहते हुये अनेक जगहों पर सभा की। इस दौरान इनको अटल बिहारी वाजपेयी ने दैनिक वीर अर्जुन का सीकर का संवाददाता भी बनाया था। सन् 1952 में अटल बिहारी वाजपेई, लाल कृष्ण आडवाणी ने बिशनसिंह को दांतारामगढ़ विधानसभा चुनाव में जनसंघ का टिकट भी दिया था परंतु बिशनसिंह ने अपने ज्येष्ठ भ्राता भैरोंसिंह को चुनाव लड़ाया था।
ग्रामीण पत्रकारिता को शिखर तक ले जाने वाले बिशनसिंह शेखावत का जाना-पहचाना कॉलम था – “आओ गांव चलें। राजस्थान पत्रिका के अपने इस स्तंभ के लिए वे तपती धूप, कड़कड़ाती सर्दी, भूख-प्यास और दुर्गम रास्तों की परवाह किए बिना ही पहुंच जाते थे। संसाधनो के नितांत अभाव के बावजूद बिशनसिंह ने चार वर्षों तक धोरों में पैदल घूम-घूम कर ग्रामीणों के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन की जो जीती-जागती तस्वीर पेश की उससे राजस्थान के पाठक परिचित हैं। ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं और उनकी जीवनशैली से शहरवासियों को परिचित कराने में माड़साहब ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह उनकी लेखनी का ही चमत्कार था कि ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं की ओर प्रशासन का ध्यान आकर्षित हुआ। असम आन्दोलन के कवरेज के लिए जब वे एक पत्रकार की हैसियत से वहां (असम) पहुंचे तो उन्होनें पूरा पूर्वांचल घूम डाला। आन्दोलन के समाचार संकलन के दौरान वे आन्दोलनकारी प्रफुल्ल महन्त (पूर्व मुख्यमंत्री भुगू फुकन) राजखोवा ओर गोगोई जैसे लोगों से जुड़ गये। माड़साब से जुड़ने के बाद ये तत्कालीन नेता उन्हें अपना मार्गदर्शन मानने लगे। तीन वर्षों तक निरन्तर उन्होनें असम आन्दोलन का मार्मिक चित्रण राजस्थान के पाठको के सामने रखा। आतंकवाद की प्रचण्डता में जलते पंजाब के समाचारों का चित्रण भी माड़साहब ने बखूबी किया। उस समय आतंक के पर्याय बन चुके जनरैलसिंह भिंडरवाला से जुड़े कई खोजपूर्ण तथ्यों से पाठकों को रूबरू करवाने वाले वे पहले पत्रकार थे। पत्रकारिता उनका मिशन था तो अध्यापन उनका पेशा था। सन् 1957 से 1977 तक शिक्षक रहे थे। उन्होंने राज्य के असंगठित शिक्षकों को संगठित करने और उनके हितों के संरक्षण के लिए जबरदस्त काम किया। 6 अक्टूबर 1996 को अपने संघर्षपूर्ण जीवन के अन्तिम दिन तक यह पत्रकार अपनी ही विचारधारा को लेकर जिया। उनके कार्यों को देखते हुए राज्य सरकार ने ग्रामीण पत्रकारिता को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से इस वर्ष से स्व. बिशनसिंह शेखावत की स्मृति में ग्रामीण पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रति वर्ष 21-21 हजार रूपये के दो पुरस्कार देने की घोषणा की हैं। माड़साहब के पुत्र जितेंद्र सिंह शेखावत भी जयपुर में वरिष्ठ पत्रकार हैं। दूसरे पुत्र राजेंद्र सिंह सेवानिवृत्त डीवाईएसपी है तथा तीसरे पुत्र भूपेंद्र सिंह राजस्थान विश्वविद्यालय में पीआरओ हैं।