वर्षा ऋतु मे पशु आहार एवं प्रबंधन
वर्षा ऋतु मे पशुओं की आहार व्यवस्था-
पशुओं के दाने-चारे के बारिश मे भीग जाने पर उसमे फंगस लग जाती हैं, ऐसा दाना-चारा पशुओ को नही देना चाहिए| बारिश के बाद हरा चारा प्रर्याप्त मात्रा मे उपलब्ध हो जाता है, परंतु हरे चारे को कटाई मशीन से काटकर सूखे चारे मे मिलाकर ही खिलाना चाहिए| फलीदार हरा चारा अधिक खिलाने से पशुओं मे आफरा आ जाता हैं ऐसे मे 500 मिली॰ मीठे तेल मे 50 मिली॰ तारपीन का तेल मिलाकर पिलाना चाहिए| पशुओं को तालाब मे पानी पिलाने की बजाय साफ पानी पिलाना चाहिए ताकि अन्तः परजीवी संक्रमण नही हो| पशुओं का समय पर कृमिनाशन करवाया जाना चाहिए|
वर्षा ऋतु मे पशु प्रबंधन-
पशु आवास इस प्रकार बनाने चाहिए कि बारिश का पानी इकट्ठा ना हो और अपशिष्ठ पदार्थ भी नाली से बहकर बाहर चले जाए| वर्षा ऋतु मे पशु आवासो मे गर्मी और उमस अधिक हो जाती है इससे बचाने के लिए खिड़कियाँ खोल देनी चाहिए और पंखे चलाने चाहिए| बारिश के दिनों मे मक्खी मच्छर का प्रकोप बढ़ जाता हैं इसलिए पशु आवासों मे फिनाइल डालकर सफाई करनी चाहिए| गर्मियों मे भैंस सामान्यतया हीट/ताव मे नही आती हैं परंतु बारिश के पश्चात भैंसे भी हीट/ताव मे आने लगती हैं अतः हीट/ताव मे आने के लक्षणों का ध्यान रखे और कृत्रिम गर्भादान करवाए|
वर्षा ऋतु मे होने वाले रोग और उनसे बचाव-
वर्षा ऋतु मे पशुओं मे मुख्यतया निम्न रोग अधिक देखे जाते हैं-
गलघोटू रोग:-
गलघोटू रोग जीवाणु (पाश्चुरेला मल्टोसीडा) से होता हैं| यह एक संक्रामक रोग है जिसका फैलाव हवा द्वारा, या बीमार पशु के झूठे पशुआहार, पानी और दूषित पदार्थो के संपर्क में आने से स्वस्थ पशुओ में हो सकता है| बछड़ो में बीमार मादा पशु के दूध से हो सकता है| यह रोग लम्बी दूरी की यात्रा से थके पशुओ में भी हो जाता है|
रोग के लक्षण:-
- तेज बुखार (104-107 डिग्री फॉरेनहाइट)
- सूजी हुई लाल आँखे
- मुँह से अधिक लार और आँख-नाक से स्त्रवण
- पशु खाना पीना और जुगाली बंद कर देता है
- पेट दर्द और दस्त
- सिर ,गर्दन या आगे की दोनों टांगो के बीच सूजन
- पशु के श्वास लेते समय घुर्र-घुर्र की आवाज आना
- श्वास लेने में कठिनाई के चलते दम घुटने से पशु की मौत
रोग से बचाव:-
हर साल मानसून से पूर्व ही, 3 माह से बड़े सभी पशुओं का गलघोटू रोग का टीकाकरण जरूर करवाए| पशुओ को लम्बी यात्राओं पर ले जाने से पूर्व भी टिका अवश्य लगवाए| बीमार पशु को अन्य स्वस्थ पशुओ से दूर रखे|| गलघोटू रोग होते ही बिना देरी किये बीमार पशु का वेटरनरी डॉक्टर से उपचार करवाए| मृत पशु का निस्तारण गहरा गड्डा खोदकर उसमे चूना या नमक डालकर करे|
लंगड़ा बुखार:-
लंगड़ा-बुखार रोग जीवाणु (क्लोस्ट्रीडियम चौवोई) से होता है| यह एक संक्रामक रोग है जो बीमार पशु से दूषित पशुआहार, के सेवन से हो सकता है| यह रोग खुले घाव द्वारा भी पशुओ में फेल जाता हैं| इस रोग में बीमार पशु के शरीर से मांस पेशियों की मोटी परत वाले भागों जैसे- कंधे, पुट्ठे और गर्दन पर “गैस से भरी सूजन” आ जाती है|
रोग के लक्षण:-
- तेज बुखार (106-108 डिग्री फॉरेनहाइट)
- पशु खाना पीना और जुगाली बंद कर देता है
- बढ़ी हुई श्वास-दर
- लाल आँखे
- शरीर के विभिन्न भागो में जकड़न
- बीमार पशु के शरीर से मांस पेशियों की मोटी परत वाले भागों जैसे- कंधे, पुट्ठे और गर्दन पर “गैस से भरी सूजन” जिसको दबाने पर चट-चट की आवाज होना
- पशु पहले तो लंगड़ाने लगता है फिर चलने में पूर्णतया असमर्थ हो जाता हैं
- अंत में पशु के शरीर का तापमान गिर जाता है और पशु मर जाता हैं
रोग से बचाव:-
हर साल मानसून से पूर्व ही, 3 माह से बड़े सभी पशुओं का लंगड़ा-बुखार रोग का टीकाकरण जरूर करवाए| बीमार पशु को अन्य स्वस्थ पशुओ से दूर रखे|| लंगड़ा-बुखार रोग होते ही बिना देरी किये बीमार पशु का वेटरनरी डॉक्टर से उपचार करवाए|
फड़कीया:-
फड़कीया रोग जीवाणु (“क्लॉस्ट्रीडियम परफ्रीजेंस टाइप-डी”) से होता है| इस रोग को “पल्पी किडनी रोग” भी कहते हैं|
रोग के लक्षण:-
- भेड़-बकरी का चक्कर काटना
- शरीर में ऐंठन आना, कंपकंपी
- सांस लेने में दिक्कत, आफरा आना और दस्त लगना
रोग से बचाव:-
फड़कीया रोग से बचाव हेतु 4 माह से बड़ी भेड़-बकरी का हर वर्ष मानसून से पूर्व टीकाकरण करवा लेना चाहिए| फडकिया रोग हो जाने पर भेड़-बकरी को तुरंत वेटरनरी डॉक्टर को दिखाना चाहिए|